फ़ादर बुल्के को भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अंग इसलिए कहा गया है क्योंकि वे बेल्जियम के रेश्व चैपल से भारत आकर यहाँ की संस्कृति में पूरी तरह रच-बस गए थे। उन्होंने संन्यासी बन कर भारत में रहने का फैसला किया।
मसीही धर्म से संबंध रखते हुए भी उन्होंने हिंदी में शोध किया। शोध का विषय था -रामकथा: उत्पत्ति और विकास। इससे उनके भारतीय संस्कृति के प्रति लगाव का पता चलता है। इस आधार पर कह सकते हैं कि फादर बुल्के भारतीय संकृति का अभिन्न अंग हैं।
फादर बुल्के के मन में अपने प्रियजनों के लिए असीम ममता और अपनत्व था। इसलिए लेखक ने फादर बुल्के को ‘मानवीय करुणा की दिव्य चमक’ कहा है।
फादर कामिल बुल्के एक ऐसा नाम है जो विदेशी होते हुए भी भारतीय है। उन्होंने अपने जीवन के 73 वर्षों में से 47 वर्ष भारत को दिए। उन 47 वर्षों में उन्होंने भारत के प्रति, हिंदी के प्रति और यहां के साहित्य के प्रति विशेष निष्ठा दिखाई है।
उनका व्यक्तित्व दूसरों को तपती धूप में शीतलता प्रदान करने वाला था। उन्होंने सदैव सबके लिए एक बड़े भाई की भूमिका निभाई है। उनकी उपस्थिति में सभी कार्य बड़ी शांति और सरलता से संपन्न होते थे। उनका व्यक्तित्व संयम धारण किए हुए था। किसी ने भी उन्हें कभी क्रोध में नहीं देखा था। वे सबके साथ प्यार, ममता से मिलते थे। जिससे एक बार मिलते थे उससे रिश्ता बना लेते थे फिर वे संबंध कभी नहीं तोड़ते थे।
फादर अपने से संबंधित सभी लोगों के घर, परिवार और उनके दु:ख-तकलीफों की जानकारी रखते थे। दु:ख के समय उनके मुख से निकले दो शब्द जीवन में नया जोश भर देते थे? फादर बुल्के का व्यक्तित्व वास्तव में देवदार की छाया के समान था। उनसे संबंध बनाने के बाद आपको बड़े भाई के अपनत्व, ममता, प्यार और आशीर्वाद की कभी कमी नहीं होती थी।
देवदार एक विशाल और छायादार वृक्ष होता है, जो अपनी सघन और शीतल छाया से श्रांत-पथिक एवं अपने आस-पड़ोस को शीतलता प्रदान करता है। ठीक ऐसे ही व्यक्तित्व वाले थे- फ़ादर कामिल बुल्क़े।
लेखक के बच्चे के मुँह में अन्न का पहला दाना फादर बुल्के ने डाला था। उस क्षण उनकी नीली आँखों में जो ममता और प्यार तैर रहा था, उससे लेखक को फादर बुल्के की उपस्थिति देवदार की छाया जैसी लगती थी।
फादर बुल्के ने पहला अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश तैयार किया था। वे हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाना चाहते थे। यहाँ के लोगों की हिंदी के प्रति उदासीनता देखकर वे क्रोधित हो जाते थे। इन प्रसंगों से पता चलता है कि वे हिंदी प्रेमी थे।
वे सदैव हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए चिंतित रहते थे। इसके लिए वे प्रत्येक मंच पर आवाज उठाते थे। उन्हें उन लोगों पर झुंझलाहट होती थी जो हिंदी जानते हुए भी हिंदी का प्रयोग नहीं करते थे।