जीवन की जद्दोजहद ने चार्ली के व्यक्तित्व को। कैसे संपन्न बनाया?


चार्ली ने जीवन में जद्दोजहद बहुत की थी। उनकी माँ परित्यक्ता और दूसरे दर्जे की स्टेज अभिनेत्री थी। चार्ली को भयावह गरीबी और माँ के पागलपन से संघर्ष करना पड़ा। उसे पूँजीपति वर्ग तथा सामंतशाहों ने भी दुत्कारा। वे नानी की तरफ से खानाबदोशों के साथ जुड़े हुए थे। अपने पिता की तरफ से वे यहूदीवंशी थे।

इन जटिल परिस्थितियों से संघर्ष करने की प्रवृत्ति ने उन्हें ‘घुमंतू’ चरित्र बना दिया। इस संघर्ष के दौरान उन्हें जो जीवन-मूल्य मिले, वे उनके धनी होने के बावजूद अंत तक कायम रहे। उनके संघर्ष ने उनके व्यक्तित्व में त्रासदी और हास्योत्पादक तत्त्वों का समावेश कर दिया। उसका व्यक्तित्व इस रूप में ढल गया जो अपने ऊपर हँसता है।

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लेखक ने ऐसा क्यों कहा है कि अभी चैप्लिन पर करीब 50 वर्षों तक काफी कुछ कहा जाएगा?


चैप्लिन एक महान कलाकार थे। उन्होंने समाज और राष्ट्र के लिए बहुत कुछ किया। दुनिया के अनेक लोग उन्हें पहली बार देख-समझ रहे हैं। यद्यपि पिछले 75 वर्षों में चार्ली के बारे में बहुत कुछ कहा गया है, पर अभी भी बहुत कुछ कहना शेष है। अभी चैप्लिन की कुछ ऐसी फिल्में तथा रीलें मिली हैं जो कभी इस्तेमाल नहीं की गई। इनके बारे में कोई कुछ नहीं जानता। अभी इनकी जाँच-पड़ताल होनी शेष है। दुनिया के लोग उन पर नए दृष्टिकोण से विचार कर रहे हैं। इन सब कामों में अभी 50 वर्षो का समय लग सकता है। अत: अभी अगले 50 वर्षो में काफी कुछ लिखा जाएगा।

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लेखक ने कलाकृति और रस के इसके संदर्भ में किसे श्रेयस्कर माना है और क्यों? क्या आप कुछ ऐसे उदाहरण ने सकते हैं जहाँ कई रस साथ-साथ आए हों?


लेखक ने कलाकृति और रस के संदर्भ में रस को श्रेयस्कर माना है। कुछ रसों का किसी एक कलाकृति में साथ-साथ पाया जाना श्रेयस्कर माना जाता है। जीवन में हर्ष और विषाद तो आते रहते हैं। करुण रस का हास्य में बदल जाना एक ऐसे रस की माँग करता है जो भारतीय परंपरा में नहीं मिलता।

ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं जब कई रस एक साथ आ जाते हैं। जंगल में नायक-नायिका प्रेमालाप कर रहे हैं। इसमे कार रस है, पर यदि उसी समय शेर आ जाए तो यही औघर रस भय में बदल जाता है तथा भयानक रस जन्म ले लेता है

वीर रस के प्रयोग स्थल पर रौद्ररस का आ जाना सामान्य सी बात है। भगवान की भक्ति करते समय शांत रस का परिपाक होता है पर हँसी की बात आ जाने पर हास्य रस की सृष्टि हो जाती है।

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चैप्लिन ने न सिर्फ़ फि़ल्म कला को लोकतांत्रिक बनाया बल्कि दर्शकों की वर्ग तथा वर्ण-व्यवस्था को तोड़ा। इस पंक्ति में लोकतांत्रिक बनाने और वर्ण व्यवस्था तोड़ने का क्या अभिप्राय है? क्या आप इससे सहमत हैं?


लोकतांत्रिक बनाने का अर्थ है-फिल्मों को हर वर्ग तक पहुँचाना। चार्ली से पहले तक फिल्में एक खास वर्ग तक सीमित थीं। उनकी कथावस्तु भी एक वर्ग विशेष के इर्द-गिर्द घूमती थी। चार्ली ने समाज के निचले तबके को अपनी फिल्मों में स्थान दिया। उन्होंने फिल्म कला को आम आदमी के साथ जोड़कर लोकतांत्रिक बनाया।

वर्ण व्यवस्था को तोड़ने से अभिप्राय है-फिल्में किसी जाति विशेष के लिए नहीं बनतीं। इसे सभी वर्ग देख सकते हैं।

हम लेखक की इस बात से पूरी तरह सहमत हैं। कला सभी के लिए होती है। इस पर किसी वर्ग विशेष का एकाधिकार नहीं होना चाहिए।

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लेखक ने चार्ली का भारतीयकरण किसे कहा और क्यों? गांधी और नेहरू ने भी उनका सान्निध्य क्यों चाहा?


लेखक ने चार्ली का भारतीयकरण राजकपूर को कहा। राजकपूर की फिल्म ‘आवारा’ सिर्फ ‘दि ट्रैम्प’ का शब्दानुवाद ही नहीं थी बल्कि चार्ली का भारतीयकरण ही था। राजकपूर ने चैप्लिन की नकल करने के आरोपों की कभी परवाह नहीं की।

महात्मा गाँधी से चार्ली का खासा पुट था। एक समय था जब गाँधी और नेहरू दोनों ने चार्ली का सान्निध्य चाहा था। उन्हें चार्ली अच्छा लगता था। वह उन्हें हँसाता था।

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