कविता को प्रभावी बनाने के लिए कवि विशेषणों का सायास प्रयोग करता है जैसे-अस्थिर सुखसुख के साथ अस्थिर विशेषण के प्रयोग ने सुख के अर्थ में प्रभाव पैदा कर दिया है। ऐसे अन्य विशेषणों को कविता से छाँटकर लिखें तथा बताएँ कि ऐसे शब्द-पदों के प्रयोग से कविता के अर्थ में क्या विशेष प्रभाव पैदा हुआ है?


दग्ध हृदय (दग्ध दुःख की अधिकता बताता है।)

निर्दय विप्लव (निर्दय-विशेषण विप्लव की हृदय हीनता को दर्शाता है।)

ऊँचा सिर (ऊँचा-विशेषण गर्व भावना को दर्शा रहा है।)

घोर वज्र-हुंकार (वज्र हुंकार की सघनता को दर्शाने के लिए ‘घोर’ विशेषण का प्रयोग)।

अचल शरीर (शरीर ‘अचल’ बताकर उसे निश्चल बताया गया है।)

आतंक भवन (भवन को आतंक का केंद्र बताने के लिए ‘आतंक’ विशेषण)।

सुकुमार शरीर (शरीर की कोमलता दर्शाने के लिए बच्चे के शरीर को सुकोमल बताया गया है।)

जीर्ण बाहु

शीर्ण शरीर (शरीर की दुर्बल अवस्था के लिए जीर्ण-शीर्ण-विशेषण।)

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दिये गये काव्यांशों की सप्रसंग व्याख्या करें
बार-बार गर्जन,

वर्षण है मूसलाधार

हृदय थाम लेता संसार

सुन-सुन घोर वज्र-हुंकार।

अशनि-पात से शायित उन्नत शत-शत-वीर,

क्षत-विक्षत-हत अचल-शरीर,

गगन-स्पर्शी स्पर्धा-धीर।


प्रसगं: प्रस्तुत पंक्तियाँ प्रसिद्ध प्रगतिवादी कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ द्वारा रचित कविता ‘बादल राग’ से अवतरित हैं। इसमें कवि ने बादल को क्राति मानते हुए उसके विध्वसंक रूप का चित्रण किया है।

व्याख्या: कवि कहता है-हे बादल! जब तुम बार-बार गरजते हुए भीषण वर्षा करते हो तब तुम्हारी भयंकर गर्जना को सुनकर सारा संसार भयभीत होकर हृदय थाम लेता है अर्थात् लोग आतंकित हो जाते हैं। तुम्हारी वज्रमयी तीव्र गर्जना को सुनकर लोग भय से काँप उठते हैं। बादलों में चमकने वाली बिजली के गिरने से बड़े-बड़े ऊँचे पर्वत भी खंड-खंड होकर इस तरह बिखर जाते हैं जैसे युद्ध में वज्र शस्त्र के प्रहार से बड़े-बड़े योद्धा धराशायी हो जाते हैं।

भाव यह है कि जब क्रांति का शंखनाद गूँजता है तब बड़े-बड़े पूँजीपति भी धराशायी हो जाते हैं। उनके उच्च होने का गर्व चूर-चूर हो जाता है।

विशेष: 1. बार-बार, सुन-सुन, शत-शत में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।

2. ‘हृदय थामना’ मुहावरे का सटीक प्रयोग है।

3. भाषा में प्रतीकात्मकता का समावेश है।

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सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के जीवन एवं साहित्य का परिचय दीजिए।


जीवन-परिचय: निराला जी का जन्म बंगाल के मेदिनीपुर जिले में सन् 1897 में हुआ था। इनके पिता पं रामसहाय त्रिपाठी उत्तर प्रदेश में उन्नाव जिले के रहने वाले थे। घर पर ही इनकी शिक्षा का श्रीगणेश हुआ। उनकी प्रकृति मे प्रारभ से ही स्वच्छंदता थी, अत: मैट्रिक से आगे शिक्षा न चल सकी। चौदह वर्ष की अल्पायु में इनका विवाह मनोहरा देवी के साथ हो गया। पिताजी की मृत्यु के बाद इन्होने मेदिनीपुर रियासत में नौकरी कर ली। पिता की मृत्यु का आघात अभी भूल भी न पाए थे कि बाईस वर्ष की अवस्था में इनकी पत्नी का भी स्वर्गवास हो गया। आर्थिक संकटों, संघर्षो तथा जीवन की यथार्थ अनुभूतियों ने निराला जी के जीवन की दिशा ही मोड़ दी। ये रामकृष्ण मिशन, अद्वैत आश्रम, बैलूर मठ चले गए। वहाँ इन्होंने दर्शनशास्त्र का गहन अध्ययन किया और आश्रम के ‘समन्वय’ नामक पत्र के संपादन का कार्य भी किया। फिर ये लखनऊ में रहने के बाद इलाहाबाद चले गए और अन्त तक स्थायी रूप से इलाहाबाद में रहकर आर्थिक संकटों एवं अभावों में भी इन्होंने बहुमुखी साहित्य की सृष्टि की।

निराला जी गम्भीर दार्शनिक, आत्मभिमानी एवं मानवतावादी थे। करुणा दयालुता, दानशीलता और संवेदनशीलता इनके जीवन की चिरसंगिनी थी। दीनदु:खियों और असहायों का सहायक यह साहित्य महारथी 15 अक्सर 1961 ई. को भारतभूमि को सदा के लिए त्यागकर स्वर्ग सिधार गया।

रचनाएँ: निराला जी ने साहित्य के सभी अंगों पर विद्वता एवं अधिकारपूर्ण लेखनी चलाई है। इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं-

काव्य: परिमल, गीतिका, तुलसीदास, अनामिका, अर्चना, आराधना कुकुरमुत्ता आदि।

उपन्यास: अप्सरा, अलका, निरूपमा, प्रभावती, काले कारनामे आदि।

कहानी: सुकुल की बीवी, लिली, सखी अपने घर, चतुरी चमार आदि।

निबंध: प्रबंध पद्य, प्रबंध प्रतिभा, चाबुक, रवीन्द्र कानन आदि।

रेखाचित्र: कुल्ली भाट, बिल्लेसुर आदि।

जीवनी: राणा प्रताप, भीष्म प्रह्राद, ध्रुव शकुतंला।

अनूदित: कपाल; कंडला, चंद्रशेखर आदि।

निराला छायावाद के ऐसे कवि हैं जो एक ओर कबीर की परंपरा से जुड़ते हैं तो दूसरी ओर समकालीन कवियों के प्रेरणा स्रोत भी हैं। उनका यह विस्तृत काव्य-संसार अपने भीतर संघर्ष और जीवन क्रांति और निर्माण, ओज और माधुर्य आशा और निराशा के द्वंद्व को कुछ इस तरह समेटे हुए है कि वह किसी सीमा में बँध नहीं पाता। उनका यह निर्बध और उदात्त काव्य व्यक्तित्व कविता और जीवन में फाँक नहीं रखता। वे आपस में घुले-मिले हैं। उल्लास-शोक राग-विराग उत्थान -पतन, अंधकार प्रकाश का सजीव कोलाज है उनकी कविता। जब वे मुक्त छंद की बात करते हैं तो केवल छंद रूढ़ियों आदि के बंधन को ही नही तोड़ते बल्कि काव्य विषय और युग की सीमाओं को भी अतिक्रमित करते हैं।

भाषा: निराला जी की भाषा खड़ी बोली है। संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्राधान्य है। बँगला के प्रभाव कै कारण भाषा मे संगीतात्मकता है। क्रिया पदों का लोप अर्थ की दुर्बोधता में सहायक है। प्रगतिवादी कविताओं की भाषा सरल और बोधगम्य है। उर्दू फारसी तथा अंग्रेजी शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं।

विषयों और भावों की तरह भाषा की दृष्टि से भी निराला की कविता के कई रंग हैं। एक तरफ तत्सम सामाजिक पदावली और ध्वन्यात्मक बिंबों से युक्त राम की शक्ति पूजा और छंदबद्ध तुलसीदास है तो दूसरी तरफ देशी टटके शब्दों का सोंधापन लिए कुकुरमुत्ता, रानी और कानी, महंग. महँगा रहा जैसी कविताएँ हैं।

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इस कविता में बादल के लिए ऐ विप्लव के वीर!, ऐ जीवन के पारावार! जैसे संबोधनों का इस्तेमाल किया गया है। बादल राग कविता के शेष पाँच खंडों में भी कई संबोधनों का इस्तेमाल किया गया है। जैसे- अरे वर्ष के हर्ष!, मेरे पागल बादल!, ऐ निर्बंध!, ऐ स्वच्छंद!, ऐ उद्दाम!, ऐ सम्राट!, ऐ विप्लव के प्लावन!, ऐ अनंत के चंचल शिशु सुकुमार! उपर्युक्त संबोधनों की व्याख्या करें तथा बतायें बादल के लिए इन संबोधनों का क्या औचित्य है?


अरे वर्ष के हर्ष: बादल वर्ष भर के बाद वर्षा ऋतु में आते हैं अत: हर्ष के कारण होते हैं। यह संबोधन उचित ही है।

मेरे पागल बादल: कवि का बादल को पागल कहना सही है। बादल पागलपन की हद तक मस्त होते हैं।

ऐ निर्बंध: बादल सर्वथा स्वच्छंद होते हैं, किसी बंधन में नहीं बँधते अत: यह संबोधन भी उचित है।

ऐ उद्दाम: बादल उच्छृंखल और निरंकुश होते हैं। वे अपनी मर्जी के मालिक होते है अत: यह संबोधन सही है।

ऐ सम्राट.: बादल बादशाह के समान होते हैं। वे शासन करते है, मानते नहीं।

ऐ विप्लव के प्लावन: बादल विप्लव को लाते हैं अत: यह संबोधन सटीक है।

ऐ अनंत के चंचल शिशु सुकुमार: बादल चंचल शिशु के समान सुकुमार भी होते हैं अत: यह संबोधन उचित है।

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दिये गये काव्यांशों की सप्रसंग व्याख्या करें
तिरती है समीर-सागर पर
अस्थिर सुख पर दुःख की छाया-

जग के दग्ध हृदय पर

निर्दय विप्लव की प्लावित माया-

यह तेरी रण-तरी,

भरी आकांक्षाओं से,

धन, भेरी-गर्जन से सजग, सुप्त अंकुर

उर में पृथ्वी के, आशाओं से,

नवजीवन की, ऊँचा कर सिर,

ताक रहे हैं, ऐ विप्लव के बादल!

फिर फिर!


प्रसगं: प्रस्तुत काव्याशं प्रगतिवादी काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ द्वारा रचित कविता ‘बादल राग’ से अवतरित है। यहाँ आम आदमी के दुःख से त्रस्त कवि व दल का आह्वान क्रांति के रूप में कर रहा है। विप्लव-रव से छोटे ही शोभा पाते हैं। क्रांति जहाँ मजदूरों में सनसनी उत्पन्न करती है, वहीं निर्धन कृषकों को उससे नई आशा-आकांक्षाएँ मिलती हैं।

व्याख्या: कवि कहता है-हे क्रांतिदूत रूपी बादल! आकाश में तुम ऐसे मँडराते रहते हो जैसे पवनरूपी सागर पर कोई नौका तैर रही हो। यह वैसे ही दिखाई दे रही है जैसे अस्थिर सुख पर दुःख की छाया मँडराती रहती है अर्थात् मानव-जीवन के सुख क्षणिक और अस्थायी हैं जिन पर दुःख की काली छाया मँडराती रहती है। संसार के दुःखों से दग्ध (जले हुए) हृदयों पर निष्ठुर क्रांति का मायावी विस्तार भी इसी प्रकार फैला हुआ है। दुःखी जनों को तुम्हारी इस युद्ध-नौका में अपनी मनवाछित वस्तुएँ भरी प्रतीत होती है अर्थात् क्रांति के बादलों के साथ दुःखी लोगों की इच्छाएँ जुड़ी रहती हैं।

हे क्रांति के प्रतीक बादल! तुम्हारी गर्जना को सुनकर पृथ्वी के गर्भ मे सोए (छिपे) बीज अंकुरित होने लगते हैं अर्थात् जब दुःखी जनता को क्रांति की गूँज सुनाई पड़ती है तब उनके हृदयों में सोई-बुझी आकांक्षाओं के अंकुर पुन: उगते प्रतीत होने लगते हैं। उन्हे लगने लगता है कि उन्हें एक नया जीवन प्राप्त होगा। अत: वे सिर उठाकर बार-बार तुम्हारी ओर ताकने लगते हैं। क्रांति की गर्जना से ही दलितों-पीड़ितों के मन में एक नया विश्वास जागत होने लगता है।

विशेष: 1. बादल को क्रांति-दूत के रूप में चित्रित किया गया है।

2. प्रगतिवादी काव्य का प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है।

3. ‘समीर-सागर’ में रूपक अलंकार है।

4. ‘सुप्त अंकुर’ दलित वर्ग का प्रतीक है।

5. मुक्त छंद का प्रयोग हुआ है।

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