हृदय की कोमलता को बचाने के लिए व्यवहार की कठोरता भी कभी-कभी जरूरी भी हो जाती है-प्रस्तुत पाठ के आधार पर स्पष्ट करें।

हृदय की कोमलता को बचाने के लिए कभी-कभी व्यवहार में कठोरता लानी जरूरी हो जाती है। शिरीष के फूलों की कोमलता को देखकर परवर्ती कवियों ने समझा कि उसका सब कुछ कोमल है पर यह सच नहीं है। इसके फल इतने मजबूत होते हैं कि नए फूलों के निकल आने पर भी स्थान नहीं छोड़ते। अंदर की कोमलता को बचाने के लिए ऐसा कठोर व्यवहार जरूरी हो जाता है।

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हाय वह अवधूत आज कहाँ है। ऐसा कहकर लेखक ने आत्मबल पर देह-बल के वर्चस्व की वर्तमान सभ्यता के संकट की ओर संकेत किया है। कैसे?


हाय वह अवधूत आज कहाँ है? ऐसा कहकर लेखक ने वर्तमान समय में आत्मबल के पतन और देह-बल शारीरिक ताकत) की प्रमुखता से उत्पन्न संकट की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया है। अवधूत तो विषय-वासनाओं से ऊपर उठा महात्मा होता है। शिरीष उसका प्रतीक है। वर्तमान समय में लोगों का आत्मबल घटता जा रहा है। देह-बल उस पर हावी होता चला जा रहा है। इससे एक प्रकार का संकट उत्पन्न चला रहा है। अब अवधूतों की स्वीकार्यता भी घटती चली जा रही है। शारीरिक ताकत का प्रदर्शन ही सब कुछ होकर रह गया है।

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लेखक ने शिरीष को कालजयी अवधूत (संन्यासी) की तरह क्यों माना है?


लेखक ने शिरीष को कालजयी अवधूत (संन्यासी) इसलिए कहा है क्योंकि जिस प्रकार विषय-वासनाओं से कोई संन्यासी ऊपर उठ जाता है वैसे ही शिरीप भी कामनाओं से ऊपर उठा प्रतीत होता है। वह कालजयी इस रूप में है कि काल का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। शिरीष भयंकर गर्मी में फलता-फूलता रहता है। यह वसंत के आगमन के साथ लहक उठता है और आषाढ़- भादों तक फलता-फूलता रहता है। जब उमस से प्राण उबलते हैं, लू से हृदय सूखता है तब शिरीष ही एकमात्र कालजयी अवधूत की भांति अजेय बना रहता है और लोगों को अजेयता का मंत्र देता रहता है। शिरीष के वृक्ष बड़े और छायादार होते हैं। शिरीष की तुलना में अन्य कोई वृक्ष नहीं टिकता। शिरीष एक ऐसे अवधूत के समान है जो दु:ख हो या सुख, वह हार नहीं मानता। यह अवधूत की तरह मन में तरंगें अवश्य जगा देता है।

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द्विवेदी जी ने शिरीष के माध्यम से कोलाहल व संघर्ष से भरी जीवन-स्थितियों में अविचल रह कर जिजीविषु बने रहने की सीख दी है। स्पष्ट करें।


द्विवेदी जी शिरीष के माध्यम से आज के कोलाहल और संघर्ष से भरी जीवन स्थितियों में अविचलित रहकर जिजीविषा को बनाए रखने की शिक्षा दो है। शिरीष का वृक्ष अनासक्त योगी की तरह अविचल बना रहता है। शिरीष अत्यंत कठिन एवं विषय परिस्थितियों में भी अपनी जीने की शक्ति बरकरार रखता है। जीवन में भी संघर्ष है और शिरीष भी अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए संघर्ष करता है। वह किसी से हार नहीं मानता। वह अजेयता के मंत्र का प्रचार करता रहता है। वे महाकाल देवता के सपासप कोड़े खाकर भी ऊर्ध्वमुखी बन रहते हैं और टिके रहते हैं। शिरीष में फक्कड़ाना मस्ती होती है। इसमें जिजीविषा होती है और हैंह हमारे लिए अनुकरणीय है। शिरीष सीख देता है कि समस्त कोलाहल और संघर्ष के मध्य भी जीने की इच्छा बनाए रखो। इससे घबराना उचित नहीं है।

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कवि (साहित्यकार) के लिए अनासक्त योगी की स्थिरप्रज्ञता और विदग्ध प्रेमी का हृदय-एक साथ आवश्यक है। ऐसा विचार प्रस्तुत कर लेखक ने साहित्य-कर्म के लिए बहुत ऊँचा मानदंड निर्धारित किया है। विस्तारपूर्वक समझाइये।


लेखक चाहता है कि कवि को अनासक्त योगी के समान होना चाहिए। उसमें स्थिरप्रज्ञता अर्थात् अविचल बुद्धि होनी चाहिए तथा एक अच्छी तरह तपे हुए प्रेमी का हृदय भी होना आवश्यक है। निश्चय ही लेखक ने साहित्य रचना के लिए बहुत ऊँचा मानदड निर्धारित किया है। कवि जब तक अनासक्त योगी बना रहेगा तभी यथार्थ का चित्रण कर पाएगा। उसकी बुद्धि स्थिर रहनी आवश्यक है। कविता का संबध हृदय से है अत: उसका हृदय विदग्ध प्रेमी का होना चाहिए। विदग्धता मैं व्यक्ति (प्रेमी) तपकर खरा बनता है। ये सभी गुण कवि के लिए अनुकरणीय हैं, पर इन सब गुणों का एक व्यक्ति में समाविष्ट होना सरल बात नहीं है। ये सभी गुण वांछनीय हैं। इनको आदर्शवादी कहा जा सकता है।

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