प्रसंग- प्रस्तुत अवतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक क्षितिज (भाग- 2) में संकलित कविता ‘आत्मकथ्य’ से लिया गया है जिसके रचयिता छायावादी काव्य के प्रवर्त्तक श्री जयशंकर प्रसाद हैं। कवि ने मुंशी प्रेमचंद के आग्रह पर भी उनकी पत्रिका ‘हंस’ के ‘आत्मकथा अंक’ के लिए अपनी आत्मकथा नहीं लिखी थी। उन्होंने माना था कि उनके जीवन में ऐसा कुछ भी विशेष नहीं था जो औरों को कुछ सरस दे पाता।
व्याख्या- कवि कहता है कि जीवन रूपी उपवन में उसका मन रूपी भंवरा गुंजार करता हुआ पता नहीं अपनी कौन-सी कहानी कह जाता है। उस कहानी से किसी को सुख मिलता है या दुःख, वह नहीं जानता। पर इतना अवश्य है कि आज उपवन में कितनी अधिक पत्तियाँ मुरझा कर झड़ रही हैं। कवि का स्वर निराशा के भावों से भरा हुआ है। उसे केवल दुःख और पीड़ा रूपी मुरझाई पत्तियाँ ही दिखाई देती हैं। उसकी न जाने कितनी इच्छाएँ बिना पूरी हुए ही मन में घुटकर रह गई। उचित परिस्थितियों और वातावरण को न पाकर वे समय से पहले ही पीले-सूखे पत्तों की तरह मुरझाकर मिट गईं। जीवन के अंतहीन गंभीर विस्तार में जीवन के असंख्य इतिहास रचे जाते हैं। वे बीती हुई निराशा भरी बातें कवि की स्थिति और पीड़ा पर व्यंग्य करती हैं, उसका उपहास उड़ाती हैं और कवि चाह कर भी कुछ नहीं कर पाता। वह अपने जीवन की विवशताओं के सामने विवश है, हताश है। वह दुःख भरे स्वर में उसकी पीड़ा भरी जिंदगी के बारे में जानने की इच्छा रखने वालों से पूछता है कि उसकी पीड़ा और विवशता को देखकर भी क्या वे कहते हैं कि कवि अपनी पीड़ा, दुर्बलता और अपने पर बीती दुःखभरी कहानी को फिर से सुनाए, फिर से दोहराए। क्या उसकी पीड़ा देखकर ही नहीं समझी जा सकती? जब तुम उसकी जीवन रूपी खाली गागर को देखोगे तो क्या तुम्हें उसे देख सुनकर सुख प्राप्त होगा? उसके हताश और निराशा से भरे अभावपूर्ण मन में कोई ऐसा भाव नहीं है जिसे दूसरों को सुनाया जा सके।