प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियाँ छायावादी कवि श्री जयशंकर प्रसाद के द्वारा रचित कविता ‘आत्मकथ्य’ से ली गई हैं। कवि ने अपने जीवन की कहानी किसी को न सुनाने के बारे में सोचा था क्योंकि उसे ऐसा लगता था कि उसके जीवन में कुछ भी ऐसा सुखद नहीं था जो किसी को सुख दे सकता था। उसके पास केवल सुखद यादें अवश्य थीं।
व्याख्या- कवि कहता है कि उसे अपने जीवन में किसी सुख की प्राप्ति कभी नहीं हुई। सपने में जिस सुख को अनुभव कर वह अपनी नींद से जाग गया था, वह भी उसे प्राप्त नहीं हुआ। वह सुख देने वाला उसके आलिंगन में आते-आते धीरे से मुस्करा कर उससे दूर हो गया, उसे प्राप्त नहीं हुआ। जो सपने में सुख और प्रेम का आधार बना था वह अपार सुंदर था, मोहक था। उसकी लाल-गुलाबी गालों की मस्ती भरी छाया में प्रेम भरी भोर अपने सुहाग की मिठास भरी मनोहरता को लेकर प्रकट हो गई थी। भाव है कि उसकी गालों में प्रातःकालीन लाली और शोभा विद्यमान थी। जीवन की लंबी राह पर चलते हुए, थक कर चूर हुए कवि रूपी यात्री की स्मृतियों में केवल वही एक सहारा थी। उसकी यादें ही उसकी थकान को कुछ कम करती थीं। कवि नहीं चाहता कि उसकी मधुर यादों के आधार को कोई जाने। वह पूछता है कि क्या उसके अंतर्मन रूपी गुदड़ी की सिलाई को उधेड़कर उस छिपे रहस्य को आप देखना चाहोगे? भाव है कि कवि उस रहस्य को अपने भीतर संभालकर रखना चाहता है। वह उसे व्यक्त नहीं करना चाहता।