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निम्नलिखित पद्यांश को पढ़कर उसकी सप्रसंग व्याख्या कीजिये:
कौसिक सुनहु मंद येहु बालकु। कुटिलु कालबस निज कुल घालकु।।
भानुबंस राकेस कलंकू। निपट निरंकुसु अबुधु असंकू।।
कालकवलु होइहि छन माहीं। कहौं पुकारि खोरि मोहि नाहीं।।।
तुम्ह हटकहु जौ चहहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा।।
लखन कहेउ मुनि सुजसु तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा।।
अपने मुहु तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी।।
नहि संतोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू।।
बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा।
सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।
विद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु।।


प्रसंग- प्रस्तुत पद हमारी पाठ्‌य पुस्तक क्षितिज (भाग-2) में संकलित पद्‌य खंड से लिया गया है जिसे मूल रूप से तुलसीदास जी द्वारा रचित महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ के बालकांड से लिया गया है। सीता स्वयंवर के समय राम ने शिवजी के धनुष को तोड़ दिया था जिस कारण परशुराम क्रोध से भर गए थे। लक्ष्मण ने उन पर व्यंग्य किया था जिस कारण उन का क्रोध और अधिक बढ़ गया था।

व्याख्या- परशुराम ने राम और लक्ष्मण के गुरु विश्वामित्र को संबोधित करते हुए कहा हे विश्वामित्र! सुनो, यह बालक बड़ा कुबुद्‌धि पूर्ण और कुटिल है। काल के वश होकर यह अपने कुल का घातक बन रहा है। यह सूर्यवंश रूपी-चंद्रमा का कलंक है। यह तो बिल्कुल उद्‌दंड, मूर्ख और निडर है। यह तो अभी क्षण भर बाद मौत के देवता काल का ग्रास बन जाएगा। मैं पुकार कर कहे देता हूँ कि इस के मर जाने के बाद फिर मुझे दोष नहीं देना। यदि तुम इसे बचाना चाहते हो तो इसे हमारा प्रताप, बल और क्रोध बतला कर ऐसा करने से रोक दो। लक्ष्मण ने तब कहा-हे मुनि! आप का सुयश आपके रहते और कौन वर्णन कर सकता है? आप ने पहले ही अनेक बार अपने मुँह से अपनी करनी-का कई तरह से वर्णन किया है। यदि इतने पर भी आप को संतोष न हुआ हो तो फिर कुछ कह डालिए। क्रोध रोक कर असहय दुःख मत सहो। आप वीरता का व्रत धारण करने वाले, धैर्यवान् और क्षोभ रहित हैं। गाली देते हुए आप शोभा नहीं देते। शूरवीर तो युद्ध मै अपनी शूरवीरता का कार्य करते हैं। वे बातें कह के अपनी वीरता को नहीं प्रकट करते। शत्रु को युद्ध में पा कर कायर ही अपने प्रताप की डींगें हांका करते हैं।

 
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निम्नलिखित पद्यांश को पढ़कर उसकी सप्रसंग व्याख्या कीजिये:
नाथ संभुधनु  भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा।।
आयेसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही।।
सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरिकरनी करि करिअ लराई।।
सुनहु राम जेहि सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा।।
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा।
सुनि मुनिबचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अवमाने।।
बहु धनुही तोरी लरिकाई। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं।।
येहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू।।
     रे नृपबालक कालबस बोलत तोहि न सँभार।।
    धनुही सम त्रिपुरारिधनु बिदित सकल संसार।।

निम्नलिखित पद्यांश को पढ़कर उसकी सप्रसंग व्याख्या कीजिये:
तुम्ह तौ कालु हॉक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा।
सुनत लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारि धरेउ कर घोरा।।
अब जनि देइ दोसु मोहि लोगु। कटुबादी बालकु बधजोगू ।।
बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब येहु मरनिहार भा साँचा।।
कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू।।
खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगे अपराधी गुरुद्रोही।।
उतर देत छोड़ौ बिनु मारे। केवल कौसिक सील तुम्हारे।।
न त येहि काटि कुठार कठोरें। गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरें।।
गाधिसू कह हृदय हसि मुनिहि हरियरे सूझ।
अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ।।


निम्नलिखित पद्यांश को पढ़कर उसकी सप्रसंग व्याख्या कीजिये:
लखन कहा हसि हमरे जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना।।
का छति लाभु जून धनु तोरें। देखा राम नयन के भोरें।।
छुअत टूट रघुंतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू।।
बोले चितै परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा।।
बालकु बोलि बधौं नहि तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोही।।
बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्वबिदित क्षत्रियकुल द्रोही।।
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही।।
सहसबाहुभुज छेदनिहारा।। परसु बिलोकु महीपकुमारा।।
मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीपकिसोर।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर।।

निम्नलिखित पद्यांश को पढ़कर उसकी सप्रसंग व्याख्या कीजिये:
कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहि जान बिदित संसारा।।
माता पितहि उरिन भय नीकें। गुर रिनु रहा सोचु बड़ जी कें।।
सो जनु हमरेहि माथे काढ़ा। दिन चलि गये ब्याज बड़ बाढां।।
अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देऊँ मैं थैली खोली।।
सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा।।
भृगुबर परसु देखाबहु मोही। बिप्र विचारि बचौं नृपद्रोही।।
मिले ने कबहूँ सुभट रन गाढ़े। द्विजदेवता घरहि के बाढ़े।।
अनुचित कहि सबु लोगु पुकारे। रघुपति सयनहि लखनु नेवारे।।
लखन उतर आहुति सरिस भृगुबरकोप कृसानु।
बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु।।

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