प्रसंग- प्रस्तुत पद गोस्वामी तुलसीदास के द्वारा रचित महाकाव्य ‘रामचरित मानस’ के बालकांड से लिया गया है। सीता स्वयंवर के अवसर पर परशुराम और लक्ष्मण के बीच शिव धनुष के भंग होने के कारण कुछ विवाद हुआ था।
व्याख्या- लक्ष्मण कहते हैं कि हे परशुराम जी! आप तो मानो काल को हाँक लगाकर बार-बार उसे मेरे लिए बुलाते हैं। लक्ष्मण के कठोर वचन सुनते ही परशुराम ने अपने फरसे को सुधार कर हाथ में ले लिया और फिर बोला- अब लोग मुझे दोष न दें। यह कडुवा बोलने वाला बालक मारे जाने के ही योग्य है। इसे बालक समझकर मैंने बहुत देर तक बचाया लेकिन अब यह सचमुच मरने को ही आ गया है। तब गुरु विश्वामित्र ने कहा-अपराध क्षमा कीजिए। बालकों के दोष और गुण को साधु लोग नहीं गिनते। परशुराम बोले-मेरा तीखी धार का फरसा, मैं दयारहित और क्रोधी हूँ। मेरे सामने यह गुरु द्रोही और अपराधी उत्तर दे रहा है। इतने पर ही मैं इसे बिना मारे छोड़ रहा हूँ। है विश्वामित्र जी! मैं इसे केवल आप के शील और प्रेम के कारण मारे बिना छोड़ रहा हूँ। नहीं तो इसे इस कठोर फरसे से काटकर थोड़े से परिश्रम से गुरु से ऋण मुक्त हो जाता। विश्वामित्र जी ने मन ही मन हँसकर कहा-मुनि को हरा-ही-हरा सूझ रहा है अर्थात् अन्य सभी जगह पर विजयी होने के कारण ये राम और लक्ष्मण को भी साधारण क्षत्रिय ही समझ रहे हैं। पर यह तो लोहे से बनी हुई खाँड (खाँडा-खड्ग) है; गन्ने की खाँड नहीं है, जो मुँह में डालते ही गल जाती है। मुनि अब भी बेसमझ बने हुए हैं और इनके प्रभाव को समझ नहीं पा रहे हैं।