‘भ्रमरगीत’ शब्द ‘भ्रमर’ और ‘गीत’ दो शब्दों के मेल से बना है। ‘भ्रमर’ छ: पैरवाला एक कीट है जिस का रंग काला होता है। इसे भँवरा भी कहते हैं। ‘गीत’ गाने का पर्याय है इसलिए ‘भ्रमर गीत’ का शाब्दिक अर्थ है- भँवरे का गान, भ्रमर संबंधी गान या भ्रमर को लक्ष्य करके लिखा गया गान।
जब श्रीकृष्ण ने मथुरा से निर्गुण ब्रह्म संबंधी ज्ञान उद्धव को देकर ब्रज क्षेत्र में भेजा था ताकि विरह-वियोग की आग में झुलसती गोपियों को वह संदेश देकर समझा सके कि वे श्रीकृष्ण के प्रति अपने प्रेम-भाव को भुला कर योग-साधना में लीन होना ही उनके लिए उचित था। तब गोपियों को उद्धव की बातें कड़वी लगी थीं। वे उद्धव को बुरा-भला कहना चाहती थीं पर श्रीकृष्ण के द्वारा भेजे गए उद्धव को अपनी मर्यादावश ऐसा कह नहीं पाती। संयोगवश एक भँवरा उड़ता हुआ वहाँ से गुजरा। गोपियों ने झट से भँवरे को संकेत कर अपने हृदय में व्याप्त सारे गुस्से को उद्धव को सुनाना आरंभ कर दिया। उद्धव का रंग भी भँवरे के समान काला था। इस प्रकार भ्रमरगीत का अर्थ है- उद्धव को लक्ष्य करके लिखा गया ‘गान’। कहीं-कहीं गोपियों ने श्रीकृष्ण को भी ‘भ्रमर’ कहा है।
निम्नलिखित पद्यांश को पढ़कर उसकी सप्रसंग व्याख्या कीजिये:
ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी।
अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी।
पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी।
ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, बूँद न ताकौं लागी।
प्रीति-नदी मैं पाउँ न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी।
‘सूरदास’ अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी।