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निम्नलिखित पद्यांश को पढ़कर उसकी सप्रसंग व्याख्या कीजिये:
       ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी।
अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी।
पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी।
ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, बूँद न ताकौं लागी।
प्रीति-नदी मैं पाउँ न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी।
‘सूरदास’ अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी।


प्रसंग- प्रस्तुत पद कृष्ण-भक्ति के प्रमुख कवि सूरदास के द्वारा रचित ‘सूरसागर’ में संकलित ‘भ्रमर गीत’ प्रसंग से लिया गया है। इसे हमारी पाठ्य-पुस्तक क्षितिज भाग- 2 में संकलित किया गया है। गोपियां सगुण-प्रेम-पथ के प्रति अपनी निष्ठा प्रकट करती हैं और मानती हैं कि वे किसी भी प्रकार स्वयं को श्रीकृष्ण के प्रेम से दूर नहीं कर सकतीं।

व्याख्या- गोपियां उद्धव की प्रेमहीनता पर व्यंग्य करती हुई कहती हैं कि हे उद्धव! तुम सचमुच बड़े भाग्यशाली हो क्योंकि तुम प्रेम के बंधन से पूरी तरह मुक्त हो, अनासक्त हो और तुम्हारा मन किंसी के प्रेम में डूबता नहीं। तुम श्रीकृष्ण के निकट रह कर भी उन के प्रेम बंधन से उसी तरह मुक्त हो जैसे कमल का पला सदा पानी में रहता है पर फिर भी उस पर जल का एक दाग भी नहीं लग पाता; उस पर जल की एक बूंद भी नहीं ठहरती। तेल की मटकी को जल में डुबोने से उस पर जल की एक बूंद भी नहीं ठहरती। इसी प्रकार तुम भी श्रीकृष्ण के निकट रहते हुए भी उन से प्रेम नहीं करते और उन के प्रभाव से सदा मुक्त बने रहते हो। तुम ने आज तक कभी भी प्रेम रूपी नदी में अपना पैर नहीं डुबोया और तुम्हारी दृष्टि किसी के रूप को देख कर भी उस में उलझी नहीं। पर हम तो भोली-भाली अबलाएं हैं जो अपने प्रियतम श्रीकृष्ण की रूप-माधुरी के प्रेम में उसी प्रकार उलझ गई हैं जैसे चींटी गुड पर आसक्त हो उस पर चिपट जाती है और फिर कभी छूट नहीं पाती, वह वहीं प्राण त्याग देती है।

 
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निम्नलिखित पद्यांश को पढ़कर प्रसंग सहित व्याख्या कीजिये:
हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।
समुझी बात कहत मधुकर के, समाचार सब पाए।
इक अति चतुर हुते पहिलैं ही, अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए।
बड़ी बुद्धि जानी जो उनकी, जोग-सँदेश पठाए।
ऊधौ भले लोग आगे के, पर हित डोलत धाए।
अब अपनै मन फेर पाइहैं, चलत जु हुते चुराए।
ते क्यौं अनीति करै आपुन, जे और अनीति छुड़ाए।
राज धरम तौ यहै ‘सूर’, जो प्रजा न जाहिं सताए।।
 

निम्नलिखित पद्यांश को पढ़कर उसकी सप्रसंग व्याख्या कीजिये:
         मन की मन ही माँझ रही।
कहिए जाइ कौन पै ऊधौ, नाहीं परत कही।
अवधि अधार आस आवन की, तन मन बिथा सही।
अब इन जोग सँदेसनी सुनि-सुनि, बिरहिनि बिरह दही।
चाहति हुतीं गुहारि जितहिं तैं, उत तैं धार बही।
‘सूरदास’ अब धीर धरहिं क्यौं, मरजादा न लही।।


‘भ्रमरगीत’ से आप का क्या तात्यर्य है?

निम्नलिखित पद्यांश को पढ़कर सप्रसंग सहित व्याख्या कीजिये:
हमारैं हरि हारिल की लकरी।
मन क्रम बचन नंद-नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी।
जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि, कान्ह-कान्ह जक री।
सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यौं करुई ककरी।
सु तौ व्याधि हमकौं लै आए, देखी सुनी न करो।
यह तो ‘सूर’ तिनहिं लै सौंपो, जिन के मन चकरी।।

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