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निम्नलिखित पद्यांश को पढ़कर उसकी सप्रसंग व्याख्या कीजिये:
         मन की मन ही माँझ रही।
कहिए जाइ कौन पै ऊधौ, नाहीं परत कही।
अवधि अधार आस आवन की, तन मन बिथा सही।
अब इन जोग सँदेसनी सुनि-सुनि, बिरहिनि बिरह दही।
चाहति हुतीं गुहारि जितहिं तैं, उत तैं धार बही।
‘सूरदास’ अब धीर धरहिं क्यौं, मरजादा न लही।।


प्रसंग- प्रस्तुत पद भक्त सूरदास के द्वारा रचित ‘सूरसागर’ के भ्रमरगीत से लिया गया है जिसे हमारी पाठ्‌य-पुस्तक में संकलित किया गया है। श्रीकृष्ण के द्वारा भेजे गए उद्धव ने गोपियों को ब्रज में संदेश सुनाया था जिसे सुनकर वह हताश हो गई थीं। वे तो श्रीकृष्ण को ही अपना एकमात्र सहारा मानती थीं पर उन्हीं के द्वारा भेजा हुआ हृदय-विदारक संदेश सुन कर वे पीड़ा और निराशा से भर उठी थीं। उन्होंने कातर स्वर में उद्धव से कहा था 

व्याख्या- हे उद्धव! हमारे मन में छिपी बात तो मन में ही रह गई है अर्थात् वे तो सोचती थीं कि जब श्रीकृष्ण वापिस आएंगे तब वे उन्हें विरह-वियोग में झेले सारे कष्टों की बातें सुनाएंगी पर अब तो उन्होंने निराकार ब्रह्म को प्राप्त करने का संदेश भेज दिया है। अब उन के द्वारा त्याग दिए जाने पर हम अपनी असहनीय विरह-पीड़ा की कहानी किसे जा कर सुनाएं? अब तो हम से यह और अधिक कही भी नहीं जाती। अब तक हम उन के वापिस लौटने की अवधि के सहारे अपने तन और मन से इस विरह-पीड़ा को सहती आ रही थीं। अब तो इन योग के संदेशों को सुन कर हम विरहिनियां वियोग में जलने लगी हैं। विरह के सागर में डूबती हुई हम गोपियों को जहाँ से सहायता मिलने की आशा थी और जहाँ हम अपनी रक्षा के लिए पुकार लगाना चाहती थीं अब उसी स्थान से योग संदेश रूपी जल की ऐसी प्रबल धारा बही है कि यह हमारे प्राण लेकर ही रुकेगी अर्थात् श्रीकृष्ण ने हमें भुला कर योग साधना करने का संदेश भेज कर हमारे प्राण ले लेने का कार्य किया है। हे उद्धव! तुम्हीं बताओ कि अब हम धैर्य धारण कैसे करें? जिन श्रीकृष्ण के लिए हम ने अपनी अन्य सभी मर्यादाओं को त्याग दिया था अब उन्हीं श्रीकृष्ण के द्वारा हमें त्याग देने से हमारी संपूर्ण मर्यादा नष्ट हो गई है।

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निम्नलिखित पद्यांश को पढ़कर प्रसंग सहित व्याख्या कीजिये:
हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।
समुझी बात कहत मधुकर के, समाचार सब पाए।
इक अति चतुर हुते पहिलैं ही, अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए।
बड़ी बुद्धि जानी जो उनकी, जोग-सँदेश पठाए।
ऊधौ भले लोग आगे के, पर हित डोलत धाए।
अब अपनै मन फेर पाइहैं, चलत जु हुते चुराए।
ते क्यौं अनीति करै आपुन, जे और अनीति छुड़ाए।
राज धरम तौ यहै ‘सूर’, जो प्रजा न जाहिं सताए।।
 

‘भ्रमरगीत’ से आप का क्या तात्यर्य है?

निम्नलिखित पद्यांश को पढ़कर सप्रसंग सहित व्याख्या कीजिये:
हमारैं हरि हारिल की लकरी।
मन क्रम बचन नंद-नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी।
जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि, कान्ह-कान्ह जक री।
सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यौं करुई ककरी।
सु तौ व्याधि हमकौं लै आए, देखी सुनी न करो।
यह तो ‘सूर’ तिनहिं लै सौंपो, जिन के मन चकरी।।

निम्नलिखित पद्यांश को पढ़कर उसकी सप्रसंग व्याख्या कीजिये:
       ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी।
अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी।
पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी।
ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, बूँद न ताकौं लागी।
प्रीति-नदी मैं पाउँ न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी।
‘सूरदास’ अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी।


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