प्रसंग- प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य -पुस्तक में संकलित सूरदास के पदों से लिया गया है। गोपियों के हृदय में श्रीकृष्ण के प्रति अपार प्रेम था। श्रीकृष्ण को जब मधुरा जाना पड़ा था तब उन्होंने अपने सखा उद्धव के निर्गुण ज्ञान पर सगुण भक्ति की विजय के लिए उन्हें गोपियों के पास भेजा था। गोपियों ने उद्धव के निर्गुण ज्ञान को सुन कर अस्वीकार कर दिया था और स्पष्ट किया था कि उन का प्रेम तो केवल श्रीकृष्ण के लिए ही था। उन का प्रेम अस्थिर नहीं था।
व्याख्या- श्रीकृष्ण के प्रति अपने प्रेम की दृढ़ता को प्रकट करते हुए गोपियों ने उद्धव से कहा कि श्रीकृष्ण तो हमारे लिए हारिल पक्षी की लकड़ी के समान बन गए हैं। अर्थात् जैसे हारिल पक्षी सदा अपने पंजों में लकड़ी पकड़े रहता है वैसे हम भी सदा श्रीकृष्ण का ध्यान करती रहती हैं। हमने मन, वचन और कर्म से नंद के नंदन श्रीकृष्ण के रूप और उनकी स्मृति को अपने मन द्वारा कस कर पकड़ लिया है। अब कोई भी उसे हम से छुड़ा नहीं सकता। हमारा मन जागते, सोते, स्वप्न या प्रत्यक्ष में सदा कृष्ण-कृष्ण की रट लगाए रहता है, सदा उन्हीं का स्मरण करता रहता है। हे- उद्धव। तुम्हारी योग की बातें सुनते ही हमें ऐसा लगता है मानों कडवी ककड़ी खा ली हो। अर्थात् तुम्हारी योग की बातें हमें बिल्कुल अरुचिकर लगती हैं। तुम तो हमारे लिए योग रूपी ऐसी बीमारी ले कर आए हो जिसे हमने न तो कभी देखा, न सुना और न कभी भुगता ही है। हम तो तुम्हारी योग रूपी बीमारी से पूरी तरह अपरिचित हैं। तुम इस बीमारी को उन लोगों को जाकर दे दो जिन के मन सदा चकई के समान चंचल रहते हैं। भाव है कि हमारा मन तो श्रीकृष्ण के प्रेम में दृढ़ और स्थिर है। जिनका मन चंचल है वही योग की बातें स्वीकार कर सकते हैं।
निम्नलिखित पद्यांश को पढ़कर उसकी सप्रसंग व्याख्या कीजिये:
ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी।
अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी।
पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी।
ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, बूँद न ताकौं लागी।
प्रीति-नदी मैं पाउँ न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी।
‘सूरदास’ अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी।