प्रसंग-प्रस्तुत पद सूरदास द्वारा रचित है जिसे सूरसागर के भ्रमर गीत प्रसंग से लिया गया है। गोपियों ने उद्धव से निर्गुण-भक्ति संबंधी जिस ज्ञान को पाया था उससे वे बहुत परेशान हुई थीं। उन्होंने कृष्ण को कुटिल राजनीति का पोषक, अन्यायी और धोखेबाज सिद्ध करने का प्रयास किया था।
व्याख्या- गोपियां श्रीकृष्ण के द्वारा भेजे गए योग संदेश को उनका अन्याय और अत्याचार मानते हुए आपस में कहती हैं कि हे सखि! अब तो श्रीकृष्ण ने राजनीति की शिक्षा प्राप्त कर ली है। वे राजनीति में पूरी तरह निपुण हो गए हैं। यह भँवरा हमसे जो बात कह रहा है वह क्या तुम्हें समझ आई? क्या तुम्हें कुछ समाचार प्राप्त हुआ? एक तो श्रीकृष्ण पहले ही बहुत चतुर-चालाक थे और अब तो गुरु ने उन्हें ग्रंथ भी पढ़ा दिए हैं। उनकी बुद्धि कितनी विशाल है, इस का अनुमान तो इसी बात से मिल गया है कि वह युवतियों के लिए योग-साधना करने का संदेश भेज रहे हैं। अर्थात् यह सिद्ध हो गया है कि वह बुद्धिमान नहीं हैं, क्योंकि कोई भी युवतियों के लिए योग-साधना को उचित नहीं मान सकता है। हे उद्धव! पुराने जमाने के सज्जन लोग दूसरों का भला करने के लिए इधर-उधर भागते-फिरते थे, पर आजकल के सज्जन तो दूसरों को दुःख देने और सताने के लिए ही यहाँ तक दौड़े चले आए हैं। हम तो केवल इतना ही चाहती हैं कि हमें हमारा मन मिल जाए जिसे श्रीकृष्ण यहाँ से जाते समय चुपचाप चुरा कर अपने साथ ले गए थे पर उनसे ऐसे न्यायपूर्ण काम की आशा कैसे की जा सकती है। वे तो दूसरों के द्वारा अपनाई जाने वाली रीतियों को छुड़ाने का प्रयत्न करते रहते हैं। भाव है कि हम तो श्रीकृष्ण से प्रेम करने की रीति अपना रहे थे पर वे तो चाहते हैं कि हम प्रेम की रीति को छोड़ कर योग साधना के मार्ग को अपना लें, यह तो अन्याय है। सच्चा राजधर्म तो उसी को माना जाता है जिस में प्रजाजनों को कभी न सताया, जाए। भाव है कि श्रीकृष्ण अपने स्वार्थ के लिए हमारे सारे सुख-चैन को छीन कर हमें दुःखी करने की कोशिश कर रहे हैं।
निम्नलिखित पद्यांश को पढ़कर उसकी सप्रसंग व्याख्या कीजिये:
ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी।
अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी।
पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी।
ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, बूँद न ताकौं लागी।
प्रीति-नदी मैं पाउँ न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी।
‘सूरदास’ अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी।