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रामनरेश त्रिपाठी के जीवन एवं साहित्य का संक्षिप्त परिचय दीजिए।


जीवन-परिचय-रामनरेश त्रिपाठी का जन्म सन् 1881 ई. में जिला जौनपुर (उ.प्र.) के अंतर्गत कोईरीपुर ग्राम में एक साधारण परिवार में हुआ था। इनके पिता भगवद्भक्त और रामायण प्रेमी थे। पिता की गहरी छाप इनके व्यक्तित्व पर पड़ी। त्रिपाठी जी की स्कूली शिक्षा विधिवत् नहीं हो सकी। इन्होंने अध्यवसाय से हिन्दी, बँगला और अंग्रेजी का सामान्य ज्ञान प्राप्त किया। ये सामाजिक एवं राष्ट्रीय कार्यो में लग गए। इन्हें भ्रमण करना बहुत प्रिय था। कई देशी रियासतों के राजे-महाराजे इनके मित्र थे। इन्होंने 20 हजार किमी. पैदल यात्रा करके हजारों ग्राम-गीतों का संकलन भी किया। बाद में इन्होंने स्वतंत्र रूप से साहित्य-साधना को ही अपना ध्येय बनाया। सन् 1962 ई में इनका स्वर्गवास हो गया।

रचनाएँ-त्रिपाठी जी की प्रमुख रचनाएँ हैं-पथिक, मिलन और स्वप्न (खण्डकाव्य), मानसी (स्फुट कविता संग्रह), कविता-कौमुदी, ग्राम्य -गीत (सम्पादित), गोस्वामी तुलसीदास और उनकी कविता (आलोचना)।

विशेषताएँ-त्रिपाठी जी मननशील, विद्वान तथा परिश्रमी थें। काव्य, कहानी, नाटक, निबंध, आलोचना तथा लोक-साहित्य आदि विषयों पर इनका च अधिकार था। इनकी रचनाओं में नवीन आदर्श और नवयुग का संकेत है। इनके द्वारा रचित ‘पथिक, और ‘मिलन’ नामक खंडकाव्य अत्यंत लोकप्रिय हुए। इनकी रचनाओं की विशेषता यह है कि उनमें राष्ट्र-प्रेम तथा मानव सेवा की उत्कृष्ट भावनाएँ बड़े सुंदर ढंग से चित्रित हुई हैं। इसके अतिरिक्त भारतवर्ष की प्राकृतिक सुषमा और पवित्र-प्रेम के सुंदर चित्र भी इन्होंने अपनी कविताओं में चित्रित किए हैं।

इन्होंने 1931 से 41 तक ‘वानर’ नामक पत्रिका का संपादन एवं प्रकाशन किया। यह पत्रिका बच्चों के बीच बड़ी लोकप्रिय थी। ‘बाल कथा कहानी’ के नाम से इन्होंने रोचक एवं शिक्षाप्रद कहानियों के कई संग्रह बच्चों के लिए तैयार किए। इन्हें ‘हिन्दी बाल-साहित्य का जनक’ कहा जा सकता है।

भाषा-शैली-त्रिपाठी जी की भाषा सरल एवं सरस खड़ीबोली है। उसमें माधुर्य और ओज है। शैली अत्यंत प्रवाहपूर्ण है। इन्होंने अपने काव्य में अनुप्रास, उपमा आदि अलंकारों -का प्रयोग किया है।

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पथिक:
प्रतिक्षण नूतन वेश बनाकर रंग-बिरंग निराला।
रवि के सम्मुख थिरक रही है नभ में वारिद-माला।
नीचे नील समुद मनोहर ऊपर नील गगन है।
घन पर बैठ, बीच में बिचरूँ यही चाहता मन है।।
रत्नाकर गर्जन करता है, मलयानिल बहता है।
हरदम यह हौसला हृदय में प्रिये! भरा रहता है।
इस विशाल, विस्तृत, महिमामय रत्नाकर के घर के
कोने-कोने में लहरों पर बैठ फिरूँ जी भर के।।

पथिक:
निकल रहा है जलनिधि-तल पर दिनकर-बिंब अधूरा।
कमला के कंचन-मंदिर का मानो कांत कँगूरा।
लाने को निज पुण्य- भूमि पर लक्ष्मी की असवारी।
रत्नाकर ने निर्मित कर दी स्वर्ण-सड़क अति प्यारी।।
निर्भय, दृढ़, गंभीर भाव से गरज रहा सागर है।
लहरों पर लहरों का आना सुंदर, अति सुंदर है।
कहो यहाँ से बढ्कर सुख क्या पा सकता है प्राणी?
अनुभव करो हृदय से, हे अनुराग- भरी कल्याणी।।

पथिक:
जब गंभीर तम अर्द्ध-निशा में जग को ढक लेता है।
अंतरिक्ष की छत पर तारों को छिटका देता है।
सस्मित-वदन जगत का स्वामी मृदु गति से आता है।
तट पर खड़ा गगन-गंगा के मधुर गीत गाता है।
उससे ही विमुग्ध हो नभ में चंद विहँस देता है।
वृक्ष विविध पत्तों-पुष्य। से तन को सज लेता है।
पक्षी हर्ष सँभाल न सकते मुग्ध चहक उठते हैं।
फूल साँस लेकर सुख की सानंद महक उठते हैं।

पथिक:
वन, - उपवन, गिरि, सानु, कुंज में मेघ बरस पड़ते हैं।
मेरा आत्म-प्रलय होता है, नयन नीर झड़ते हैं।
पढ़ो लहर, तट, तृण, तरु, गिरि, नभ, किरन, जलद पर प्यारी।
लिखी हुई यह मधुर कहानी विश्व-विमोहनहारी।।
कैसी मधुर मनोहर उज्जल है यह प्रेम-कहानी।
जी में है अक्षर बन इसके बनूँ विश्व की बानी।
स्थिर, पवित्र, आनंद-प्रवाहित, सदा शांति सुखकर है।
अहा! प्रेम का राज्य परम सुंदर, अतिशय सुंदर है।।

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