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पथिक:
जब गंभीर तम अर्द्ध-निशा में जग को ढक लेता है।
अंतरिक्ष की छत पर तारों को छिटका देता है।
सस्मित-वदन जगत का स्वामी मृदु गति से आता है।
तट पर खड़ा गगन-गंगा के मधुर गीत गाता है।
उससे ही विमुग्ध हो नभ में चंद विहँस देता है।
वृक्ष विविध पत्तों-पुष्य। से तन को सज लेता है।
पक्षी हर्ष सँभाल न सकते मुग्ध चहक उठते हैं।
फूल साँस लेकर सुख की सानंद महक उठते हैं।


प्रसंग- प्रस्तुत काव्याशं रामनरेश त्रिपाठी द्वारा रचित खंड-काव्य ‘पथिक’ से अवतरित है। कवि समुद्र-तट के सौंदर्य का वर्णन करने के पश्चात् आकाश के सौंदर्य का चित्रण करता है।

व्याख्या-कवि बताता है कि आधी रात का अंधकार सारे संसार को ढक लेता है और अंतरिक्ष की छत पर तारों को बिखेर देता है। अर्थात् आसमान में तारे निकल आते हैं। तब इस संसार का स्वामी मुसकराते मुख से धीमी गति से आता है और समुद्र-तट पर खड़ा होकर आकाश-गंगा के मीठे- मीठे गीत गाता है।

इस दृश्य सं मोहित होकर आकाश में चंद्रमा हँस देतां है अर्थात् आकाश में चंद्रमा की छटा बिखर जाती है। पेड़ भी विभिन्न प्रकार के पत्तों और फूलों से अपने शरीर को सजा लेते हैं। इम मनोहारी वातावरण में पक्षी भी अत्यधिक हर्षित हो उठते हैं। खुशी उनसे सँभाले नहीं सँभलती। फूल भी महकने लगते हैं। उन्हें देखकर ऐसा लगता है जैसे वे सुख की साँस ले रहे हों।

विशेष- 1. प्रकृति का मनोहारी चित्रण किया गया है।

2. कई स्थलों पर प्रकृति का मानवीकरण किया गया है।

(चंद्र का हँसना, फूल का साँस लेना)

3. ‘पत्तों-पुष्पों’ और ‘गगन-गंगा’ में अनुप्रास अलंकार है।

4. तत्सम शब्द-प्रधान खड़ी बोली का प्रयोग हुआ है।

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पथिक:
वन, - उपवन, गिरि, सानु, कुंज में मेघ बरस पड़ते हैं।
मेरा आत्म-प्रलय होता है, नयन नीर झड़ते हैं।
पढ़ो लहर, तट, तृण, तरु, गिरि, नभ, किरन, जलद पर प्यारी।
लिखी हुई यह मधुर कहानी विश्व-विमोहनहारी।।
कैसी मधुर मनोहर उज्जल है यह प्रेम-कहानी।
जी में है अक्षर बन इसके बनूँ विश्व की बानी।
स्थिर, पवित्र, आनंद-प्रवाहित, सदा शांति सुखकर है।
अहा! प्रेम का राज्य परम सुंदर, अतिशय सुंदर है।।

पथिक:
निकल रहा है जलनिधि-तल पर दिनकर-बिंब अधूरा।
कमला के कंचन-मंदिर का मानो कांत कँगूरा।
लाने को निज पुण्य- भूमि पर लक्ष्मी की असवारी।
रत्नाकर ने निर्मित कर दी स्वर्ण-सड़क अति प्यारी।।
निर्भय, दृढ़, गंभीर भाव से गरज रहा सागर है।
लहरों पर लहरों का आना सुंदर, अति सुंदर है।
कहो यहाँ से बढ्कर सुख क्या पा सकता है प्राणी?
अनुभव करो हृदय से, हे अनुराग- भरी कल्याणी।।

रामनरेश त्रिपाठी के जीवन एवं साहित्य का संक्षिप्त परिचय दीजिए।


पथिक:
प्रतिक्षण नूतन वेश बनाकर रंग-बिरंग निराला।
रवि के सम्मुख थिरक रही है नभ में वारिद-माला।
नीचे नील समुद मनोहर ऊपर नील गगन है।
घन पर बैठ, बीच में बिचरूँ यही चाहता मन है।।
रत्नाकर गर्जन करता है, मलयानिल बहता है।
हरदम यह हौसला हृदय में प्रिये! भरा रहता है।
इस विशाल, विस्तृत, महिमामय रत्नाकर के घर के
कोने-कोने में लहरों पर बैठ फिरूँ जी भर के।।

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