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बिना दवा दर्पन के धरनी
स्वरग चली-आँखें आतीं भर,
देख-रेख के बिना दुध मुँही
बिटिया दो दिन बाद गई मर!
घर में विधवा रही पतोहू
लछमी थी, यद्यपि पति घातिन,
पकड़ मंगाया कोतवाल ने,
डूब कुएँ में मरी एक दिन!


प्रसंग- प्रणत काव्याशं प्रसिद्ध प्रगतिवादी कवि मुमित्रानदंन पन द्वारा रचित कविता ‘वे आँखें’ से अवतरित है। कवि किसानों की दुर्दशा का मार्मिक अकन करते हुए कहता है-

व्याख्या-किसान की पत्नी बिना दवा के स्वर्ग चली गई अर्थात् वह धनाभाव के कारण उसका इलाज तक नहीं करवा पाया और वह इसके अभाव में मर गई। इस दशा को याद करके अभी भी उसकी आँखें भर आती हैं। उसके मरने के बाद बेटी की देखभाल के लिए भी कोई न रहा। अत: वह दुधमुंही बालिका भी दो दिन पश्चात् मर गई।

अब घर में केवल पुत्रवधू रह गई। वह भी विधवा थी। वह लक्ष्मी के समान थी, पर उस पर पति की हत्या का इलाम था। कोतवाल ने अपने सिपाही भेजकर उसे पकड़कर मँगा लिया। वह शर्म के कारण एक दिन कुएँ में डूब मरी। इस प्रकार किसान का पूरा परिवार बर्बाद हो गया। इसके दुखों का कोई अंत नहीं है।

विशेष- 1 किसान के जीवन में घट रही दुर्घटनाओं का विवरण प्रस्तुत किया गया है।

2. ‘दवा दर्पन’ में अनुप्रास अलंकार है।

3. ‘कुएँ में डूब मरना’ मुहावरे का सटीक प्रयोग है।

4. मार्मिकता का समावेश हुआ है।

5. सरल एवं सुबोध भाषा का प्रयोग किया गया है।

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सुमित्रानंदन पंत के जीवन एवं साहित्य पर प्रकाश डालते हुए उनकी काव्यगत विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।



लहराते वे खेत दुर्गों में
हुआ बेदखल वह अब जिनसे,
हँसती थी उसके जीवन की
हरियाली जिनके दतृन-तृनसे!
आँखों ही में घूमा करता
‘वह उसकी आँखों का तारा,
कारकुनों की लाठी से जो
गया जवानी ही में मारा!

वे आँखें
अंधकार की गुहा सरीखी
उन आखों से डरता है मन
भरा दूर तक उनमें दारुण
दैन्य दुःख का नीरव रोदन!
वह स्वाधीन किसान रहा
अभिमान भरा आखों में इसका
छोड़ उसे मँझधार आज
संसार कगार सदृश बह खिसका!


बिका दिया घर द्वार
महाजन ने न ब्याज की कौड़ी छोड़ी,
रह-रह आखों में चुभती वह
कुर्क हुई बरधों की जोड़ी!
उजरी उसके सिवा किसे कब
पास दुहाने आने देती?
अह, आँखों में नाचा करती
उजड़ गई जो सुख की खेती!


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