वे आँखें
अंधकार की गुहा सरीखी
उन आखों से डरता है मन
भरा दूर तक उनमें दारुण
दैन्य दुःख का नीरव रोदन!
वह स्वाधीन किसान रहा
अभिमान भरा आखों में इसका
छोड़ उसे मँझधार आज
संसार कगार सदृश बह खिसका!
प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियाँ प्रसिद्ध कवि सुमित्रानदंन पतं द्वारा रचित कविता ‘वे आँखें’ से अवतरित हैं। यह उनकी प्रगतिवादी दौर की कविता है। इसमें कवि स्वतत्र भारत में भी किसानों की दुर्दशा को देखकर आहत होता है। वह उनकी दशा का यथार्थ अकन करते हुए कहता है-
व्याख्या- भारत स्वाधीन तो हो गया पर किसानों की दशा में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया। उनकी दुख दीनता से परिपूर्ण आँखों की ओर देखने से भी मन भयभीत होता है। किसान की आँखें अंधकार से भरी गुफा के समान हैं अर्थात् उनमें प्रकाश की कोई किरण नजर नहीं आती। उनमें अत्यधिक वेदना, दीनता और दुख-पीड़ा का शांत रोदन भरा हुआ है। किसानों के मन की पीड़ा उनकी आँखों में झलकती है। यह पीड़ा इतनी अधिक है कि उनकी आँखों की ओर देखने का साहस तक नहीं होता।
आज देश स्वतंत्र है। किसान भी स्वाधीन हो गया। इस बात का गर्व उसकी आँखों में भी झलकता है। लेकिन दुख की बात तो यह है कि यह स्वाधीनता उसकी दशा में परिवर्तन नहीं ला पाई। किसान को दुखों के मध्य छोडकर संसार के अन्य लोग किनारे की ओर खिसक गए अर्थात् शासक वर्ग ने किसानों को बीच मझधार में अकेला छोड़ दिया और स्वयं उससे कन्नी काट गए। इन किसानों को स्वाधीन होने का कोई लाभ नहीं मिल पाया।
विशेष- 1. किसानों की दुर्दशा का मार्मिक चित्रण किया गया है।
2. ‘आँखों को अंधकार की गुहा सरीखी’ बताने में उपमा अलंकार का प्रयोग है।
3. ‘दारुण दैन्य दुख’ में द’ वर्ण की आवृत्ति है, अत: अनुप्रास अलंकार है।
4. खड़ी बोली का प्रयोग किया गया है।
बिका दिया घर द्वार
महाजन ने न ब्याज की कौड़ी छोड़ी,
रह-रह आखों में चुभती वह
कुर्क हुई बरधों की जोड़ी!
उजरी उसके सिवा किसे कब
पास दुहाने आने देती?
अह, आँखों में नाचा करती
उजड़ गई जो सुख की खेती!
सुमित्रानंदन पंत के जीवन एवं साहित्य पर प्रकाश डालते हुए उनकी काव्यगत विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
बिना दवा दर्पन के धरनी
स्वरग चली-आँखें आतीं भर,
देख-रेख के बिना दुध मुँही
बिटिया दो दिन बाद गई मर!
घर में विधवा रही पतोहू
लछमी थी, यद्यपि पति घातिन,
पकड़ मंगाया कोतवाल ने,
डूब कुएँ में मरी एक दिन!