प्रस्तुत पक्तियों का सप्रसंग व्याख्या करें?
कविता एक खिलना है फूलों के बहानेकविता का खिलना भला फूल क्या जाने!
बाहर भीतर
इस घर, उस घर
बिना मुरझाए महकने के माने
फूल क्या जाने?
कविता एक खेल है बच्चों के बहाने
बाहर भीतर
यह घर, वह घर
सब घर एक कर देने के माने
बच्चा ही जाने!
प्रसगं: प्रस्तुत काव्याशं कवि कुवँरनारायण द्वारा रचित कविता ‘कविता के बहाने’ से अवतरित है। इस कविता में कवि यह स्पष्ट करता है कि कविता शब्दों का खेल है। इसमें कोई बंधन नहीं होता। सीमाओं के बंधन स्वयं टूट जाते है।
व्याख्या: कवि कहता है कि कविता की रचना फूलों के बहाने हो सकती है। कवि का मन कविता की रचना के समय फूल की भांति प्रफल्लित होता है। कवि बताता है कि कविता इस प्रकार खिलती अर्थात् विकसित होती है जैसे फूल विकसित होते हैं। वैसे कविता के खिलने को फूल नहीं जान पाते। फूलों की अपनी सीमा होती है। फूल बाहर-भीतर, इस घर में और उस घर में खिलते हैं। फूल शीघ्र मुरझा भी जाते हैं। फूल के खिलने के साथ उसकी परिणति निश्चित है, लेकिन कविता इससे बढ्कर है। फूल खिलते हैं, कुछ देर महकते हैं और फिर मुरझा जाते हैं। वे सूखकर मिट जाते हैं पर कविता के मधुरभाव तो कभी नहीं मुरझाते। कविता बिना मुरझाए महकती रहती है। फूल इस रहस्य को नहीं समझ सकते। फूलों की अपनी सीमा होती है, जबकि कविता की सीमा नहीं होती।
कविता लिखते समय कवि का मन भी बच्चों के समान हो जाता है। कविता बच्चों के खेल के समान है। बच्चे घर के भीतर-बाहर खेलते रहते हैं। वे सेब घरों को एक समान कर देते हैं। बच्चों के सपने असीम होते हैं। बच्चों के खेल में किसी प्रकार की सीमा का कोई स्थान नहीं होता। कविता की भी यही स्थिति है। कविता भी शब्दों का खेल है। शब्दों के इस खेल में जड़-चेतन, अतीत, वर्तमान और भविष्य सभी उपकरण मात्र हैं। कविता पर कोई बंधन लागू नहीं होता। इसमें न घर की सीमा होती है और न भाषा की सीमा।
प्रस्तुत पक्तियों का सप्रसंग व्याख्या करें?
सारी मुश्किल को धैर्य से समझे बिना
मैं पेंच को खोलने के बजाए
उसे बेतरह कसता चला जा रहा था
क्यों कि इस करतब पर मुझे
साफ सुनाई दे रही थी
तमाशबीनों की शाबाशी और वाह वाह!
आखिरकार वही हुआ जिसका मुझे डर था
जो़र ज़बरदस्ती से
बात की चूड़ी मर गई
और वह भाषा में बेकार घूमने लगी!
प्रस्तुत पक्तियों का सप्रसंग व्याख्या करें?
हार कर मैंने उसे कील की तरह
उसी जगह ठोंक दिया
ऊपर से ठीकठाक
पर अंदर से
न तो उसमें कसाव था
न ताकत!
बात ने, जो एक शरारती बच्चे की तरह
मुझसे खेल रही थी
मुझे पसीना पोंछते देख कर पूछा-
“क्या तुमने भाषा को
सहूलितय से बरतना कभी नहीं सीखा?”
प्रस्तुत पक्तियों का सप्रसंग व्याख्या करें?
बात सीधी थी पर एक बार
भाषा के चक्कर में
जरा टेढ़ी फँस गई।
उसे पाने की कोशिश में
भाषा को उलटा पलटा
तोड़ा मरोड़ा
घुमाया फिराया
कि बात या तो बने
या फिर भाषा से बाहर आए-
लेकिन इससे भाषा के साथ साथ
बात और भी पेचीदा होती चली गई।