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प्रस्तुत पक्तियों का सप्रसंग व्याख्या करें?
बात सीधी थी पर एक बार

भाषा के चक्कर में

 

जरा टेढ़ी फँस गई।

 

उसे पाने की कोशिश में

 

भाषा को उलटा पलटा

 

तोड़ा मरोड़ा

 

घुमाया फिराया

 

कि बात या तो बने

 

या फिर भाषा से बाहर आए-

 

लेकिन इससे भाषा के साथ साथ

 

बात और भी पेचीदा होती चली गई।

 


प्रसगं: प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि कुँवर नारायण द्वारा रचित कविता ‘बात सीधी थी पर’ से अवतरित हैं। यह कविता में भाषा की सहजता की बात कही गई है। हर बात के लिए कुछ खास शब्द होते हैं। वे शब्द ही उस शब्द का अर्थ खोलने में सक्षम होते हैं।

वयाख्या: कवि बताता है कि एक बात थी तो बड़ी सीधी-सरल, पर भाषा के शब्द-जाल में उलझकर टेढ़ी हो गई। तब वह सरल-सहज रूप को खो बैठी। कवि का तात्पर्य यह है कि अपने विचारों की अभिव्यक्ति सीधे-सादे ढंग से करनी चाहिए। भाषा के जाल में उलझकर वह क्लिष्ट हो जाती है।

कवि बात को पाने के प्रयास में भाषा को काफी उलटा-पलटा, तोड़-मरोड़ की, शब्दों को इधर से उधर घुमाया ताकि बात बन जाए। यह न हो सका। कवि ने बात को भाषा के जाल से बाहर निकालने का भी प्रयास किया लेकिन स्थिति और भी खराब होती चली गई। इससे बात और भी पेचीदा हो गई। वह भाषा के जाल में उलझकर रह गई। ऐसा तब होता है जब हम अपनी बात को कहने या समझाने के लिए उपयुक्त शब्दों का प्रयोग नहीं करते। गलत शब्दों वाली भाषा हमारे कथ्य को और भी उलझा देती है। भाषा के जाल में कथ्य और भी असहज हो जाता है।

विशेष: 1. प्रतीकात्मकता का समावेश है।

2. पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार का प्रयोग है (साथ-साथ)।

3. लाक्षणिकता विद्यमान है।

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प्रस्तुत पक्तियों का सप्रसंग व्याख्या करें?

कविता एक खिलना है फूलों के बहाने

कविता का खिलना भला फूल क्या जाने!

बाहर भीतर

इस घर, उस घर

बिना मुरझाए महकने के माने

फूल क्या जाने?

कविता एक खेल है बच्चों के बहाने

बाहर भीतर

यह घर, वह घर

सब घर एक कर देने के माने

बच्चा ही जाने!


प्रस्तुत पक्तियों का सप्रसंग व्याख्या करें?

सारी मुश्किल को धैर्य से समझे बिना

मैं पेंच को खोलने के बजाए

उसे बेतरह कसता चला जा रहा था

क्यों कि इस करतब पर मुझे

साफ सुनाई दे रही थी

तमाशबीनों की शाबाशी और वाह वाह!

आखिरकार वही हुआ जिसका मुझे डर था

जो़र ज़बरदस्ती से

बात की चूड़ी मर गई

और वह भाषा में बेकार घूमने लगी!


प्रस्तुत पक्तियों का सप्रसंग व्याख्या करें?
हार कर मैंने उसे कील की तरह

उसी जगह ठोंक दिया

 

ऊपर से ठीकठाक

 

पर अंदर से

 

न तो उसमें कसाव था

 

न ताकत!

 

बात ने, जो एक शरारती बच्चे की तरह

 

मुझसे खेल रही थी

 

मुझे पसीना पोंछते देख कर पूछा-

 

“क्या तुमने भाषा को

 

सहूलितय से बरतना कभी नहीं सीखा?”

 


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