प्रस्तुत पक्तियों की सप्रंसग व्याख्या करें
गरबीली गरीबी यह, ये गंभीर अनुभव सब
यह विचार-वैभव सब
दृढ़ता यह, भीतर की सरिता यह अभिनय सब
मौलिक है, मौलिक है,
इसलिए कि पल-पल में
जो कुछ भी जागृत है, अपलक है-
संवेदन तुम्हारा है!!
प्रंसग: प्रस्तुत पक्तियां गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’ द्वारा रचित कविता ‘सहर्ष स्वीकारा है’ से अवतरित हैं। कवि अपने जीवन की अनुभूति-सपंत्ति पर प्रकाश डालते हुए कहता है-
व्याख्या: मेरी स्वाभिमानयुक्त गरीबी (निर्धन रहते हुए भी) (आत्म गौरव की भावना), जीवन की गहरी अनुभूतियाँ, मेरे सब वैचारिक चिंतन मेरे व्यक्तित्व की दृढ़ता, मेरे अंत:करण में बहती भावनाओं की नदी और व्यक्त करने के शारीरिक हाव-भाव (मेरी समस्त चेष्टाएँ)-ये सब मौलिक हैं, अनुभव सत्य है, भोगे हुए यथार्थ हैं। इनमें किसी की छाया अथवा अनुकृति नहीं है। ये अनुभव मुझे जीवन को जीते हुए प्राप्त हुए हैं। मेरे जीवन में जो कुछ भी सजग और स्थिर है वह सब तुम्हारी प्रेरणामयी और संवेदनामयी अनुभूतियों का फल है। अर्थात् हे प्रिय! तुम्हारी संवेदना ही मेरी समस्त उपलब्धियों का मुख्य स्रोत है। मेरे जीवन में जो कुछ दिखाई देता है, उस सब में तुम्हारा ही संवेदन विद्यमान है, तुम्हारी अनुभूति विद्यमान है तुम्हारी अनुभूति के कारण ही वे मुझे प्रिय लगती हैं।
विशेष: 1. अभावग्रस्त, किंतु स्वाभिमानपूर्ण जिंदगी का शब्द चित्र प्रस्तुत किया गया है।
2. प्रिय की संवेदना का तरल अमूर्त बिंब प्रस्तुत किया गया है।
3. ‘गरवीली गरीबी’ ‘विचार वैभव’ में अनुप्रास अलंकार है।
4. ‘मौलिक है, मौलिक है’ तथा ‘पल-पल’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
5. ‘गरीबी’ के लिए ‘गरवीली’ विशेषण का प्रयोग अत्यंत सटीक बन पड़ा है।
6. ‘भीतर की सरिता’ में लाक्षणिकता है।
7. ‘गरवीली-गरीबी’ तथा ‘विचार-वैभव’ में सामासिकता है।
8. ‘मौलिक’ शब्द की आवृत्ति द्वारा दृढ़ता का भाव उत्पन्न किया गया है।
गजानन माधव मुक्तिबोध के व्यक्तित्व तथा कृतित्व का परिचय दीजिए।
भूलूँ मैं
प्ले मैं
तुम्हें भूल जाने की
दक्षिण ध्रुवि अंधकार अमावस्या
शरीर पर, चेहरे पर, अंतर में पालूँ मैं
झेलूँ मैं, उसी में नहा लूँ मैं
इसलिए कि तुमसे ही परिवेष्टित आच्छादित
रहने का रमणीय यह उजेला अब
सहा नहीं जाता है।
नहीं सहा जाता है।
प्रस्तुत पक्तियों की सप्रंसग व्याख्या करें
जिंदगी में जो कुछ है, जो भी है
सहर्ष स्वीकारा है,
इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है
वह तुम्हें प्यारा है।
जितना भी उँडेलता हूँ, भर-भर फिर आता है
दिल में क्या झरना है?
मीठे पानी का सोता है
भीतर वह, ऊपर तुम
मुस्काता चाँद ज्यों धरती पर रात-भर
मुझ पर त्यों तुम्हारा ही खिलता वह चेहरा है।