जितना भी उँडेलता हूँ, भर-भर फिर आता है
दिल में क्या झरना है?
मीठे पानी का सोता है
भीतर वह, ऊपर तुम
मुस्काता चाँद ज्यों धरती पर रात-भर
मुझ पर त्यों तुम्हारा ही खिलता वह चेहरा है।
प्रसंग: प्रस्तुत पक्तियां मुक्तिबोध की ‘सहर्ष स्वीकार) है’ शीर्षक कविता में से अवतरित हैं। कवि अपने जीवन के प्रत्येक क्षण को अपने प्रिय से जुड़ा पाता है। वह स्वयं को हर समय प्रिय के निकट पाता है। कवि कहता है-
व्याख्या: हे प्रिय! न जाने मेरा तुम्हारे हदय के साथ कैसा गहरा रिश्ता (संबंध) है कि अपने हृदय के प्रेम को जितनी मात्रा मे उडेलता हूँ, मेरा मन उतना ही प्रेममय होता चला जाता है अर्थात् मैं अपने हृदय के भावों को कविता आदि के माध्यम से जितना बाहर निकालने का प्रयास करता हूँ, उतना ही पुन: अंत:करण में भर-भर आता है। अपने हृदय की इस अद्भुत स्थिति को देखकर मैं यह सोचने पर विवश हो जाता हूँ कि कहीं मेरे हृदय में प्रेम का कोई झरना तो नहीं बह रहा है जिसका जल समाप्त होने को ही नहीं आता। मेरे हृदय में भावों की हलचल मची रहती है। इधर मन में प्रेम है और ऊपर से तुम्हारा चाँद जैसा मुस्कराता हुआ सुंदर चेहरा अपने अद्भुत सौंदर्य के प्रकाश से मुझे नहलाता रहता है। यह स्थिति उसी प्रकार की है जिस प्रकार आकाश में मुस्कराता हुआ चंद्रमा पृथ्वी को अपने प्रकाश से नहलाता रहता है।
भाव यह है कि कवि की समस्त अनुभूतियाँ प्रिय की सुंदर मुस्कानयुक्त स्वरूप से आलोकित हैं।
विशेष: 1. कवि ने अपने प्रेममय हृदय की अद्भुत स्थिति का वर्णन किया है।
2. ‘दिल में क्या झरना है?’ में प्रश्न अलंकार है।
3. ‘भर- भर’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
4. ‘जितना भी उँडेलता हूँ, भर-भर फिर आता है’ में विरोधाभास अलंकार है।
5. प्रिय के मुख की चाँद के साथ समता करने में उपमा अलंकार है।
6. ‘मीठे पानी का सोता है’ में रूपक अलंकार है।
7. ‘झरना’ और ‘स्रोत’ प्रेम की अधिकता को व्यंजित करते हैं।
8. भाषा में लाक्षणिकता का समावेश है।
गजानन माधव मुक्तिबोध के व्यक्तित्व तथा कृतित्व का परिचय दीजिए।
प्रस्तुत पक्तियों की सप्रंसग व्याख्या करें
जिंदगी में जो कुछ है, जो भी है
सहर्ष स्वीकारा है,
इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है
वह तुम्हें प्यारा है।
भूलूँ मैं
प्ले मैं
तुम्हें भूल जाने की
दक्षिण ध्रुवि अंधकार अमावस्या
शरीर पर, चेहरे पर, अंतर में पालूँ मैं
झेलूँ मैं, उसी में नहा लूँ मैं
इसलिए कि तुमसे ही परिवेष्टित आच्छादित
रहने का रमणीय यह उजेला अब
सहा नहीं जाता है।
नहीं सहा जाता है।
प्रस्तुत पक्तियों की सप्रंसग व्याख्या करें
गरबीली गरीबी यह, ये गंभीर अनुभव सब
यह विचार-वैभव सब
दृढ़ता यह, भीतर की सरिता यह अभिनय सब
मौलिक है, मौलिक है,
इसलिए कि पल-पल में
जो कुछ भी जागृत है, अपलक है-
संवेदन तुम्हारा है!!