बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी।
जीविका बिहीन लोग सीद्यमान सोच बस,
कहैं एक एकन सौं कहाँ जाइ, का करी?
बेदहूँ पुरान कही, लोकहूँ बिलोकिअत,
साँकरे सबै पै, राम! रावरे कृपा करी।
दारिद-दसानन बयाई दुनी दीनबंधु!
दुरित-बहन देखि तुलसी हहा करी।।
प्रसगं: प्रस्तुत कवित्त रामभक्त कवि तुलसीदास द्वारा रचित काव्य ‘कवितावली’ से अवतरित है। तुलसीदास जी ने इस काव्य रचना में अपने युग के संघर्षपूर्ण जीवन का उल्लेख करके अपने आराध्य प्रभु श्रीराम से करुणा की प्रार्थना की है। यहाँ कवि ने कलियुग के वर्णन के बहाने अपने युग की यथार्थ स्थिति का चित्रण किया है।
व्याख्या: तुलसीदास समसामयिक स्थिति का वर्णन करते हुए कहते हैं-वर्तमान में समाज की स्थिति यह है कि किसान के पास खेती करने के लिए न धरती है और न साधन ही हैं। लोग आर्थिक दृष्टि से इतने कमजोर हो गए हैं कि कोई भिखारियों को भीख तक नहीं देता। व्यापारियों का व्यापार चौपट हो गया है। लोगों की क्रयशक्ति ही समाप्त हो गई है। कोई किसी को अपने यहाँ नौकरी नहीं देता क्योंकि वह उसे वेतन नहीं दे सकता। धीरे-धीरे लोगों के जीविका के साधन ही समाप्त हो रहे हैं। उन्हें हर समय यही चिंता घेरे रहती है कि वे अब कहाँ जाएँ और क्या करें? हमारी आवश्यकताएँ पूरी ही नहीं हो रही हैं। वेद-पुराणों आदि धार्मिक ग्रंथों में कहा गया है और इस संसार में देखा भी जाता है कि संकट पड़ने पर हे राम! आप हमेशा कृपा करते हैं। आज गरीबी रूपी रावण संसार को पीड़ित कर रहा है अर्थात् सता रहा है। हे राम! आप दीनबंधु हैं, दरिद्रों और दीनों पर कृपा करने वाले हैं। इसलिए मैं (तुलसी) आपसे आर्त स्वर में प्रार्थना करता हूँ कि आप पापों से जलते इस संसार का उद्धार करें अर्थात् अपनी करुण कृपा से इस ससार की रक्षा करें।
विशेष: 1. कवि ने इन पंक्तियों में अपने युग की विषम आर्थिक स्थितियों का यथार्थ चित्रण किया है।
2. सामाजिक-नैतिक मूल्यों के हास की स्थिति में ईश्वरभक्त संसार के कष्टों से मुक्ति दिलाने के लिए भगवान से अवतार की प्रार्थना करता है-
जब-जब होई धरम की हानी। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी।।
तब-तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।।
3. ईश्वर के लिए ‘दीनबंधु’ शब्द का प्रयोग सार्थक है।
4. ‘कहाँ जाई, का करी’ शब्दों में दरिद्रता में फँसे लोगों की दशा का चित्रण शसाकारहुआ है।
5. अलंकार-
-‘दारिद-दसानन दबाई दुनी दीनबंधु’ में दरिद्रता रूपी रावण में ‘रूपक’ तथा ‘द’ वर्ण की आवृत्ति के कारण ‘अनुप्रास’ अलंकार है।
6. भाषा: ब्रज।
7. छंद: कवित्त।
8. रस: करुण एवं शांत रस।
तुलसीदास के जीवन का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनकी साहित्यिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
चाकर, चपल नट, चोर, चार, चेटकी।
पेटको पढ़त, गुन गढ़त, चढ़त गिरि,
अटत गहन-गन अहन अखेटकी।।
ऊँचे-नीचे करम, धरम-अधरम करि,
पेट ही को पचत, बेचत बेटा-बेटकी।
‘जतुलसी’ बुझाई एक राम घनस्याम ही तें,
आगि बड़वागितें बड़ी है अगि पेटकी।।
(CBSE 2008 Outside)
रजपूतू कहौ, जोलहा कही कोऊ।
काहूकी बेटीसों बेटा न व्याहब,
काहूकी जाति बिगार न सोऊ।।
तुलसी सरनाम गुलामु है रामको,
जाको रुचै सो कहै कछु ओऊ।।
माँगि कै खैबो, मसीतको सोइबो,
लैबो को एकु न दैबे को दोऊ।।
अस कहि आयसु पाइ पद बंदि चलेउ हनुमंत।।
भरत बाहु बल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार।
मन महूँ जात सराहत पुनि पुनि पवनकुमार।।