बाजा़र किसी का लिंग, जाति-मजहब या क्षेत्र नहीं देखता, वह देखता है सिर्फ़ उसकी क्रय शक्ति को। इस रूप में वह एक प्रकार से सामाजिक समता की भी रचना कर रहा है। क्या आप इससे सहमत हैं?
बाजा़र का काम है-वस्तुओं का विक्रय करना। उसे तो ग्राहक चाहिए। उसे इस बात से कोई मतलब नहीं है कि यह ग्राहक कौन है, किस जाति या धर्म का है, पुरुष या स्त्री है? वह सभी कौ ग्राहक के रूप में देखता है। उसे तो उन लोगों की क्रय शक्ति (Purchasing power) से मतलब है। यदि व्यक्ति खरीदने की शक्ति नहीं रखता तो उसका बड़ा भी उसके लिए व्यर्थ है। ग्राहक में बाजार कोई भेदभाव नहीं करता।
इस रूप में बाजा़र सामाजिक समता स्थापित करता जान पड़ता है। ऊपर से तो यह बात सही प्रतीत होती है, पर जिनकी क्रय शक्ति नहीं है वे तो हीन भावना का शिकार बनते ही हैं। वे स्वयं को अन्य की तुलना में छोटा मान लेते हैं। उनमें निराशा का भाव आता है।
'बाजा़रूपन' से क्या तात्पर्य है? किस प्रकार के व्यक्ति बाजा़र को सार्थकता प्रदान करते हैं अथवा बाजा़र की सार्थकता किसमें है?
बाजा़र का जादू चढ़ने और उतरने पर मनुष्य पर क्या-क्या असर पड़ता है?
बाजा़र में भगतजी के व्यक्तित्व का कौन-सा सशक्त पहलू उभरकर आता है? क्या आपकी नज़र में उनका आचरण समाज में शांति स्थापित करने में मददगार हो सकता है?