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जरूरत-भर जीरा वहाँ से ले लिया कि फिर सारा चौक उनके लिए आसानी से नहीं के बराबर हो जाता है-भगत जी की इस संतुष्ट निस्पृहता की कबीर की इस सूक्ति से तुलना कीजिए-

चाह गर्ड़ चिंता गई मनुओं बेपरवाह

जाके कछु न चाहिए सोइ सहंसाह। -कबीर


कबीर का यह दोहा बताता है कि चाह (लालसा) के समाप्त हो जाने पर चिंता भी मिट जाती है, मनुष्य बेपरवाह हो जाता है। असली शहंशाह वही है जिसे कुछ भी नहीं चाहिए।

यही निस्पृह भावना है। भगत जी आत्म संतुष्ट व्यक्ति हैं। वे अपनी जरूरत भर का सामान खरीदते हैं। उन्हें उसी से संतुष्टि मिल जाती है। उनका मन चिंतामुक्त रहता है।

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स्त्री माया न जोड़े यहाँ ‘माया’ शब्द किस ओर संकेत कर रहा है? क्या स्त्रियों द्वारा माया जोड़ना प्रकृति प्रदत्त है अथवा परिस्थितिवश? वे कौन-सी परिस्थितियाँ होंगी जो स्त्री को माया जोड़ने के लिए विवश कर देती हैं?

लेखक ने पाठ में इस ओर संकेत किया है कि कभी-कभी बाजार में आवश्यकता ही शोषण का रूप धारण कर लेती है। क्या आप इस विचार से सहमत हैं? तर्क सहित उत्तर दीजिए।


विजयदान देथा की कहानी ‘दुविधा’ (जिस पर ‘पहेली’ फिल्म बनी है) के अंश को पढ़कर आप देखेंगे कि भगतजी की संतुष्ट जीवन-दृष्टि की तरह ही गडरिए की जीवन-दृष्टि है। इससे आपके भीतर क्या भाव जगते हैं? गड़रिया बगैर कहे ही उसके दिल की बात समझ गया, पर अँगूठी कबूल नहीं की। काली दाढ़ी के बीच पीले दाँतों की हँसी हँसते हुए बोला-’मैं कोई राजा नहीं हूँ जो न्याय की कीमत वसूल करूँ। मैंने तो अटका काम निकाल दिया और यह अँगूठी मेरे किस काम की! न ये अंगुलियों में आती है, न तड़े में। मेरी भेड़ें भी मेरी तरह गँवार हैं। घास तो खाती हैं, पर सोना सूँघती तक नहीं। बेकार की वस्तुएँ तुम अमीरों को ही शोभा देती हैं।


आप अपने तथा समाज में किन्हीं दो ऐसे प्रसंगों का उल्लेख करें-

(क) जब पैसा शक्ति के परिचायक कै रूप में प्रतीत हुआ।

(ख) पैसे की शक्ति काम नहीं आई।


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