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फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ के जीवन का परिचय देते हुए उनकी साहित्यिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए तथा रचनाओं का उल्लेख कीजिए।


जीवन-परिचय: श्री फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ हिन्दी के प्रसिद्ध कथाकार हैं। इनका जन्म 1921 ई. में बिहार के पूर्णिया जिले के औराही हिंगना नामक गाँव में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा गाँव में ही हुई। 1942 के ‘भारत छोड़ो आदोलन’ में सक्रिय भाग लिया और पढ़ाई बीच में ही छोड्कर राजनीति में रुचि लेने लगे। रेणु जी साम्यवादी विचारधारा से प्रभावित थे। वे राजनीति में प्रगतिशील विचारधारा के समर्थक थे। फिर वे साहित्य-सृजन की ओर उन्मुख हुए। 1977 ई. में आपका देहान्त हो गया।

साहित्यिक-परिचय: रेणु जी हिन्दी के प्रथम आंचलिक उपन्यासकार हैं। उन्होंने अंचल-विशेष को अपनी रचनाओं का आधार बनाकर वहाँ के जीवन और वातावरण का सजीव अंकन किया है। इनकी रचनाओं में आर्थिक अभाव तथा विवशताओं से जूझता समाज यथार्थ के धरातल पर उभर कर सामने आता है। अपनी गहरी मानवीय संवेदना के कारण वे अभावग्रस्त जनता की बेबसी और पीड़ा भोगते से लगते हैं। इनकी रचनाओं में अनूठी संवेदनशीलता मिलती है।

सन् 1954 में उनका बहुचर्चित आंचलिक उपन्यास मैला आँचल प्रकाशित हुआ जिसने हिन्दी उपन्यास को एक नई दिशा दी। हिन्दी जगत में आंचलिक उपन्यासों पर विमर्श मैला चल सै ही प्रारंभ हुआ। आंचलिकता की इस अवधारणा ने उपन्यासों और कथा-साहित्य में गाँव की भाषा-संस्कृति और वहाँ के लोक जीवन को केन्द्र में ला खड़ा किया। लोकगीत, लोकोक्ति, लोकसंस्कृति, लोकभाषा एवं लोकनायक की इस अवधारणा ने भारी-भरकम चीज एवं नायक की जगह अंचल को ही नायक बना डाला। उनकी रचनाओं में अंचल कच्चे और अनगढ़ रूप में ही आता है इसीलिए उनका यह अंचल एक तरफ शस्य-श्यामल है तो दूसरी तरफ धूल भरा और मैला भी। स्वातंत्र्योत्तर भारत में जब सारा विकास शहर केन्द्रित होता जा रहा था ऐसे में रेणु ने अपनी रचनाओं से अंचल की समस्याओं की ओर भी लोगों का ध्यान खींचा। उनकी रचनाएँ इस अवधारणा को भी पुष्ट करती हैं कि भाषा की सार्थकता बोली के साहचर्य में ही है।

रेणु जी मूलत: कथाकार हैं किन्तु उन्होंने अनेक मर्मस्पर्शी निबंध भी लिखे हैं। उनके निबंधों में भी सजीवता और रोचकता बनी हुई है। रेणु जी की प्रसिद्ध रचनाएँ हैं–

कहानी संग्रह: ‘ठुमरी’, ‘अग्निखोर’, ‘आदिम रात्रि की महक’, ‘तीसरी कसम’ आदि।

उपन्यास: ‘मैला आँचल’, ‘परती परिकथा’ आदि।

निबंध-संग्रह: ‘श्रुत अश्रुतपूर्व।’

भाषा-शैली: रेणु जी की भाषा अत्यंत सरल, सहज एवं प्रवाहपूर्ण है। उनकी भाषा में चित्रात्मकता एवं काव्यात्मकता का गुण है। वे वर्ण्य विषय का एक सजीव चित्र प्रस्तुत कर देते हैं। उनकी भाषा में कविता की सी गति कोमलता और प्रवाह मिलता है। उनकी भाषा में भावों को स्पष्ट कर देने की क्षमता भी विद्यमान है। भावना में आवेग के अवसरों पर उनकी वाक्य-रचना संक्षिप्त हो जाती है। कई स्थलों पर कुछ शब्द ही वाक्य का काम कर जाते हैं। उपयुक्त विशेषणों का चयन, सरस मुहावरे एवं लोकोक्तियों का प्रयोग तथा भावपूर्ण संवादों के प्रयोग ने उनकी भाषा-शैली को समृद्ध बनाया है। प्रकृति का मानवीकरण उनकी विशेषता है- “परती का चप्पा-चप्पा हँस रहा है।”

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कुश्ती के समय ढोल की आवाज़ और लुट्टन के दाँव-पेंच में क्या तालमेल था? पाठ में आए ध्वन्यात्मक शब्द और ढोल की आवाज़ आपके मन में कैसी ध्वनि पैदा करते हैं, उन्हें शब्द दीजिए।


कहानी के किस-किस मोड़ पर लुट्टन के जीवन में क्या-क्या परिवर्तन आए?


निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:
अंधेरी रात चुपचाप आँसू बहा रही थी। निस्तब्धता करुण सिसकियों और आहों को बलपूर्वक अपने हृदय में ही दबाने की चेष्टा कर रही थी। आकाश में तारे चमक रहे थे। पृथ्वी पर कहीं प्रकाश का नाम नहीं। आकाश से टूटकर यदि कोई भावुक तारा पृथ्वी पर जाना भी चाहता तो उसकी ज्योति और शक्ति रास्ते में ही शेष हो जाती थी। अन्य तारे उसकी भावुकता अथवा असफलता पर खिलाखिलाकर हँस पड़ते थे।

सियारों का क्रंदन और पेचक की डरावनी आवाज कभी-कभी निस्तब्धता को अवश्य भंग कर देती थी। गाँव की झोंपड़ियों से कराहने और कै करने की आवाज ‘हरे राम! हे भगवान!’ की टेर अवश्य सुनाई पड़ती थी। बच्चे भी कभी-कभी निर्बल कंठों से ‘माँ-माँ’ पुकारकर रो पड़ते थे। पर इससे रात्रि की निस्तब्धता में विशेष बाधा नहीं पड़ती थी।

कुत्तों में परिस्थिति को ताड़ने की विशेष बुद्धि होती है। वे दिन-भर राख के घूरों पर गठरी की तरह सिकुड़कर, मन मारकर पड़े रहते थे। संध्या या गंभीर रात्रि को सब मिलकर रोते थे।
1. पाठ तथा लेखक का नाम बताइए।
2. अंधेरी रात का दृश्य कैसा था?
3. गाँव का वातावरण कैसा था?
4. कुत्तों के विषय में लेखक क्या कहता है?



निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:
कुत्तों में परिस्थिति को ताड़ने की एक विशेष बुद्धि होती है। वे दिन-भर राख के घूरों पर गठरी की तरह सिकुड़कर, मन मारकर पड़े रहते थे। संध्या या गंभीर रात्रि को सब मिलकर रोते थे।
रात्रि अपनी भीषणताओं के साथ चलती रहती और उसकी सारी भीषणता को, ताल ठोककर, ललकारती रहती थी-सिर्फ पहलवान की ढोलक! संध्या से लेकर प्रातःकाल तक एक ही गति से बजती रहती-’चट्-धा, गिड़-धा,… चट्-धा, गिड़-धा।’ यानी ‘आ जा भिड़ जा, आ जा, भिड़ जा।…’बीच-बीच में- ‘चटाक् चट्-धा, चटाक् चट्-धा।’ यानी ‘उठाकर पटक दे! उठाकर पटक दे!!’
यही आवाज मृत-गाँव में संजीवनी शक्ति भरती रहती थी।
लुट्टसिहं पहलवान!
यों तो वह कहा करता था- ‘लुट्टन सिंह पहलवान को होल इंडिया भर के लोग जानते हैं’, किन्तु उसके ‘होल-इंडिया’ की सीमा शायद एक जिले की सीमा के बराबर ही हो। जिले भर के लोग उसके नाम से अवश्य परिचित थे।
1. पाठ का नाम तथा लेखक का नाम बताइए।
2. कुत्तों के बारे में क्या बताया गया है?
3. रात्रि की भीषणता क्या थीं? इनको कौन, किस प्रकार ललकारता था?
4. कौन- सी आवाज क्या असर दिखाती थी?


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