हाथों पे बुलाती है उसे गोद-भरी
रह-रह के हवा में जो लोका देती है
गूँज उठती है खिलखिलाते बच्चे की हँसी।
प्रसंग: प्रस्तुत रुबाई उर्दू के मशहूर शायर फिराक गोरखपुरी द्वारा रचित है। फिराक की रुबाई में हिंदी का एक घरेलू रूप दिखाई देता है। इस रुबाई में माँ बच्चों को प्यार करती हुई हाथों में झूला झुला रही है।
व्याख्या: माँ अपने घर के आँगन में अपने चाँद के टुकड़े अर्थात् प्यारे बालक लिए हुए खड़ी है। वह बालक को हाथों पर झुला रही है। कभी उसे गोद में भर लेती है। माँ बच्चे को बार-बार हवा में उछाल-उछाल कर प्यार कर रही है। इस प्यार करने की क्रिया को लोका देना कहा जाता है। यह क्रिया बच्चे को बहुत भाती है। जब माँ बच्चे को हवा में उछाल-उछाल कर प्यार करती है तो बच्चा खुश होकर खिलखिलाकर हँस उठता है। घर के आँगन में बच्चे की हँसी की किलकारी गूँज उठती है।
विशेष: 1. बच्चे में चाँद के टुकड़े का आरोप है अत: रूपक अलंकार है।
2. ‘लोका देना’-एक अनूठा प्रयोग है।
3. ‘रह-रह’ में पुनरूक्ति प्रकाश अलंकार है।
4. वात्सल्य रस की व्यंजना हुई है।
5. हिंदी-उर्दू का मिश्रित रूप प्रयुक्त हुआ है। यह लोकभाषा है।
बालक तो हई चाँद पॅ ललचाया है
दर्पण उसे दे के कह रही है माँ
देख आईने में चाँद उतर आया है।
छायी है घटा गगन की हलकी-हलकी
बिजली की तरह चमक रहे हैं लच्छे
भाई के है बाँधती चमकती राखी।
उलझे हुए गेसुओं में कंघी करके
किस प्यार से देखता है बच्चा मुँह को
जब घुटनियों में ले के है पिन्हाती कपड़े।
फिराक गोरखपुरी का जीवन-परिचय एवं साहित्यिक परिचय दीजिए तथा रचनाओं का उल्लेख भी कीजिए।