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जाति प्रथा भारतीय समाज में बेरोजगारी व भुखमरी का भी एक कारण कैसे बनती रही है? क्या यह स्थिति आज भी है?


जाति प्रथा भारतीय समाज में बेरोजगारी और भुखमरी का भी कारण बनती रही है। जब समाज किसी व्यक्ति को जाति के आधार पर किसी एक पेशे में बाँध देता है और यदि वह पेशा उस व्यक्ति के लिए अनुपयुक्त हो या अपर्याप्त हो तो उसके सामने भुखमरी की स्थिति खड़ी हो जाती है। जब जाति प्रथा के बंधन के कारण मनुष्य को अपना पेशा बदलने की स्वतंत्रता नहीं होती तब भला उसके सामने भूखों मरने के अलावा क्या चारा रह जाता है। भारतीय समाज पैतृक पेशा अपनाने पर ही जोर देता है भले इस पेशे में वह पारंगत न हो। इस प्रकार पेशा परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख व प्रत्यक्ष कारण बनती रही है।

आज इस स्थिति में परिवर्तन आ रहा है। आज व्यक्ति को अपना पेशा चुनने या बदलने का अधिकार है। सरकार की आरक्षण नीति से भी स्थिति में बदलाव आया है। अब भारतीय समाज का उतना बंधन नहीं रह गया है।

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शारीरिक वंश-परंपरा और सामाजिक परंपरा की दृष्टि में असमानता संभावित रहने के बावजूद डॉ. अंबेडकर ‘समता’ को एक व्यवहार्य सिद्धांत मानने का आग्रह क्यों करते हैं? इसके पीछे उनके क्या तर्क हैं?


लेखक के मत से ‘दासता’ की व्यापक परिभाषा क्या है?


सही में डॉ. आंबेडकर ने भावनात्मक समत्व और मान्यता के लिए जातिवाद का उन्मूलन चाहा है, जिसकी प्रतिष्ठा के लिए भौतिक स्थितियों व जीवन सुविधाओं का तर्क दिया है। क्या इससे आप सहमत हैं?


जाति प्रथा को श्रम विभाजन का ही एक रूप न मानने के पीछे आंबेडकर के क्या तर्क हैं?


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