सदा पंक पर ही होता जल-विप्लव-प्लावन,
क्षुद्र फुल्ल जलज से सदा छलकता नीर,
रोग-शोक में भी हँसता है
शैशव का सुकुमार शरीर।
प्रसंग: प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह (भाग-2)’ में संकलित कविता ‘बादल राग’ से अवतरित है। इसके रचयिता मयकात सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ है। इसममें कवि ने यह विश्वास प्रकट किया है कि क्रांति से सदा शोषित वग ही लावर्गन्वित होता है। पूँजीपति क्रांति से सफल प्राप्त नहीं करता अपितु यह वर्ग आतंकित होता है
व्याख्या: कवि कहता है कि पूंजीपतियों के ये ऊँच--ऊँचे भवन गरीबों को आतंकित करने के अड्डे (केंद्र) है। इनमे रहने वाले गरीबों पर अत्याचार करनते रहते हैं। भयंकर जल-प्लावन सदा कीचड़ पर ही होता है। वर्षा से जो बाढ़ आती है वह सदा कीचड़ से भरी पृथ्वी को ही डुबोती है। ठीक इसी नरह क्रांति रूपी जल विप्लव भी पकिल अर्थात् पापपूर्ण जीवन जीने वाले पूँजीपतियो को ही अपने तेज बहाव में बहाकर ले जाता है। यही जल जब छोटे से प्रफुल्लित कमल की पंखुड़ियों पर पड़ता है तो वही छोटा-सा कमल और अधिक शोभा को धारण कर लेता है। प्रसन्न और विकसित कमल की पंखुड़ियौं पर पड़ी यत्न की बूँदें मोतियो की तरह दमकन लगती है।
भाव ग्रह है कि क्रांति का सुफल शोषित वर्ग को प्राप्त होता है। जैसे छोटे शिशु का सुकुमार शरीर रोग-शोक (दुःखों) के बीच भी हँसता रहता है, उसी प्रकार शोषित की भी कष्टों से बेखबर रहते हैं।
विशेष: 1. संपूर्ण काव्यांश मे प्रतीकात्मकता का समावेश हुआ है। अट्टालिका पैक जलज प्रतीकात्मक हैं।
2. कवि ने शोषित वर्ग के प्रति गहरी सहानुभूति प्रकट की है।
3. अनुप्रास, रूपकातिशयोक्ति रूपक आदि अलंकारों का प्रयोग किया गया है।
4. भाव चित्रो को व्यंग्यात्मक शैली में प्रस्तुत किया गया है।
निम्नलिखित काव्यांशों को पढ़कर पूछे गए प्रश्नो के उत्तर दीजिए:
“हँसते हैं छोटे पौधे लघु भार-
शस्य अपार,
हिल-हिल
खिल-खिल
हाथ हिलाते,
तुझे बुलाते
विप्लव रव से छोटे ही हैं शोभा पाते।”
1. इन पंक्तियों में कवि ने क्या बताना चाहा है?
2. इस काव्याशं का शिल्पगत सौदंर्य स्पष्ट करो।
3. ‘छोटे पौधे’ की प्रतीकात्मकता स्पष्ट करो।
शस्य अपार,
हिल-हिल,
खिल-खिल
हाथ हिलाते,
तुझे बुलाते,
तुझे बुलाते,
विप्लव-रव से छोटे ही हैं शोभा पाते।.
तुझे बुलाता कृषक अधीर
ऐ विप्लव के वीर!
चूस लिया है उसका सार
हाड़ मात्र ही हैं आधार,
ऐ जीवन के पारावार!
अंगना-अग से लिपटे भी
आतंक-अंक पर काँप रहे हैं
धनी, वज्र गर्जन से, बादल।
त्रस्त नयन-मुख ढाँप रहे हैं।