लेखक ने शिरीष को कालजयी अवधूत (संन्यासी) की तरह क्यों माना है?
लेखक ने शिरीष को कालजयी अवधूत (संन्यासी) इसलिए कहा है क्योंकि जिस प्रकार विषय-वासनाओं से कोई संन्यासी ऊपर उठ जाता है वैसे ही शिरीप भी कामनाओं से ऊपर उठा प्रतीत होता है। वह कालजयी इस रूप में है कि काल का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। शिरीष भयंकर गर्मी में फलता-फूलता रहता है। यह वसंत के आगमन के साथ लहक उठता है और आषाढ़- भादों तक फलता-फूलता रहता है। जब उमस से प्राण उबलते हैं, लू से हृदय सूखता है तब शिरीष ही एकमात्र कालजयी अवधूत की भांति अजेय बना रहता है और लोगों को अजेयता का मंत्र देता रहता है। शिरीष के वृक्ष बड़े और छायादार होते हैं। शिरीष की तुलना में अन्य कोई वृक्ष नहीं टिकता। शिरीष एक ऐसे अवधूत के समान है जो दु:ख हो या सुख, वह हार नहीं मानता। यह अवधूत की तरह मन में तरंगें अवश्य जगा देता है।
द्विवेदी जी ने शिरीष के माध्यम से कोलाहल व संघर्ष से भरी जीवन-स्थितियों में अविचल रह कर जिजीविषु बने रहने की सीख दी है। स्पष्ट करें।
कवि (साहित्यकार) के लिए अनासक्त योगी की स्थिरप्रज्ञता और विदग्ध प्रेमी का हृदय-एक साथ आवश्यक है। ऐसा विचार प्रस्तुत कर लेखक ने साहित्य-कर्म के लिए बहुत ऊँचा मानदंड निर्धारित किया है। विस्तारपूर्वक समझाइये।