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द्विवेदी जी ने शिरीष के माध्यम से कोलाहल व संघर्ष से भरी जीवन-स्थितियों में अविचल रह कर जिजीविषु बने रहने की सीख दी है। स्पष्ट करें।


द्विवेदी जी शिरीष के माध्यम से आज के कोलाहल और संघर्ष से भरी जीवन स्थितियों में अविचलित रहकर जिजीविषा को बनाए रखने की शिक्षा दो है। शिरीष का वृक्ष अनासक्त योगी की तरह अविचल बना रहता है। शिरीष अत्यंत कठिन एवं विषय परिस्थितियों में भी अपनी जीने की शक्ति बरकरार रखता है। जीवन में भी संघर्ष है और शिरीष भी अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए संघर्ष करता है। वह किसी से हार नहीं मानता। वह अजेयता के मंत्र का प्रचार करता रहता है। वे महाकाल देवता के सपासप कोड़े खाकर भी ऊर्ध्वमुखी बन रहते हैं और टिके रहते हैं। शिरीष में फक्कड़ाना मस्ती होती है। इसमें जिजीविषा होती है और हैंह हमारे लिए अनुकरणीय है। शिरीष सीख देता है कि समस्त कोलाहल और संघर्ष के मध्य भी जीने की इच्छा बनाए रखो। इससे घबराना उचित नहीं है।

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कवि (साहित्यकार) के लिए अनासक्त योगी की स्थिरप्रज्ञता और विदग्ध प्रेमी का हृदय-एक साथ आवश्यक है। ऐसा विचार प्रस्तुत कर लेखक ने साहित्य-कर्म के लिए बहुत ऊँचा मानदंड निर्धारित किया है। विस्तारपूर्वक समझाइये।


हाय वह अवधूत आज कहाँ है। ऐसा कहकर लेखक ने आत्मबल पर देह-बल के वर्चस्व की वर्तमान सभ्यता के संकट की ओर संकेत किया है। कैसे?

लेखक ने शिरीष को कालजयी अवधूत (संन्यासी) की तरह क्यों माना है?


हृदय की कोमलता को बचाने के लिए व्यवहार की कठोरता भी कभी-कभी जरूरी भी हो जाती है-प्रस्तुत पाठ के आधार पर स्पष्ट करें।

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