कवि (साहित्यकार) के लिए अनासक्त योगी की स्थिरप्रज्ञता और विदग्ध प्रेमी का हृदय-एक साथ आवश्यक है। ऐसा विचार प्रस्तुत कर लेखक ने साहित्य-कर्म के लिए बहुत ऊँचा मानदंड निर्धारित किया है। विस्तारपूर्वक समझाइये।
लेखक चाहता है कि कवि को अनासक्त योगी के समान होना चाहिए। उसमें स्थिरप्रज्ञता अर्थात् अविचल बुद्धि होनी चाहिए तथा एक अच्छी तरह तपे हुए प्रेमी का हृदय भी होना आवश्यक है। निश्चय ही लेखक ने साहित्य रचना के लिए बहुत ऊँचा मानदड निर्धारित किया है। कवि जब तक अनासक्त योगी बना रहेगा तभी यथार्थ का चित्रण कर पाएगा। उसकी बुद्धि स्थिर रहनी आवश्यक है। कविता का संबध हृदय से है अत: उसका हृदय विदग्ध प्रेमी का होना चाहिए। विदग्धता मैं व्यक्ति (प्रेमी) तपकर खरा बनता है। ये सभी गुण कवि के लिए अनुकरणीय हैं, पर इन सब गुणों का एक व्यक्ति में समाविष्ट होना सरल बात नहीं है। ये सभी गुण वांछनीय हैं। इनको आदर्शवादी कहा जा सकता है।
लेखक ने शिरीष को कालजयी अवधूत (संन्यासी) की तरह क्यों माना है?
द्विवेदी जी ने शिरीष के माध्यम से कोलाहल व संघर्ष से भरी जीवन-स्थितियों में अविचल रह कर जिजीविषु बने रहने की सीख दी है। स्पष्ट करें।