प्रस्तुत पक्तियों का सप्रसंग व्याख्या करें?
मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना,मैं फूट पड़ा, तुम कहते, छंद बनाना;
क्यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,
मैं दुनिया का हूँ एक नया दीवाना!
मैं दीवानों का वेश लिए फिरता हूँ,
मैं मादकता निःशेष लिए फिरता हूँ;
जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए,
मैं मस्ती का संदेश लिए फिरता हूँ!
प्रसंग प्रस्तुत काव्याशं आधुनिक काल के प्रसिद्ध कवि हरिवंशराय ‘बच्चन’ द्वारा रचित कविता ‘आत्म–परिचय’ से अवतरित है। कवि अपने व्यक्तित्व की विशिष्टता का बखान करता है।
व्याख्या कवि कहता है कि मैं तो रोया अत: मेरे हृदय का दु:ख शब्दों में ढलकर प्रकट हुआ और इसे ससार गाना (गीत) कहता है। कवि के हृदय के भाव सहजता के साथ फूटे तो संसार के लोग उसे छंद बनाना कहने लगे। ससार उसे कवि कहता है और अपनाने की (स्वीकार करने की) बात कहता है जबकि कवि स्वयं को इस दुनिया का एक दीवाना मात्र समझता है। वैसे कवि चाहकर भी इस दुनिया से पूरी तरह तरह कटकर नहीं रह सकता। कवि के अनुसार यह संसार बड़ा ही विचित्र है। यह किसी कै आतरिक भावो को समझ ही नहीं पाता।
कवि कहता है कि मेरा वेश ही दीवानों जैसा है। दीवानों में जैसी मादकता (मस्ती) होती है, वैसी ही उसमें भी है। मेरी मादकता ऐसी है जिसमें अन्य कुछ भी न बचा हो। मेरे मादकता भरे गीतों को सुनकर संसार के लोग झूम उठते हैं, झुकने लगते हैं और वे भी मस्ती में लहराने लगते हैं। कवि तो ऐसी ही मस्ती का संदेश लोगों को देता फिरता है। लोग इसी संदेश को गीत समझ लेते हैं। विशेष: 1 कवि अपनी मस्ती का बखान करता है। यही मस्ती उसके गीतों में फूट पड़ती है।
2. ‘क्यों कवि कहकर’ तथा ‘झूम झुके’ में अनुप्रास अलंकार का प्रयोग है।
3. कवि का व्यक्तिवाद उभरा है।
4. खड़ी बोली का प्रयोग किया गया है।
उन्मादों में अवसाद लिए फिरता हूँ,
जो मुझको बाहर हँसा, रुलाती भीतर,
मैं, हाय 2 किसी की याद लिए फिरता हूँ,
कर यत्न मिटे सब, सत्य किसी ने जाना?
नादान वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना!
फिर छू न क्या जग, जो इस पर भी सीखे?
मैं सीख रहा हूँ, सीखा ज्ञान भुलाना!
प्रस्तुत पक्तियों का सप्रसंग व्याख्या करें?
मैं और, और जग और, कहाँ का नाता,मैं बना-बना कितने जग रोज मिटाता;
जग जिस पृथ्वी पर जोड़ा करता वैभव,
मैं प्रति पग से उस पृथ्वी को ठुकराता!
मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,
शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ,
हों जिस पर भूपोंके प्रासाद निछावर,
मैं वह खंडहर का भाग लिए फिरता हूँ।
दिये गये काव्याशं सप्रसंग व्याख्या करें?
दिये गये काव्याश का सप्रसंग व्याख्या करें?
मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ,
फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ;
कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर
मैं साँसों के वो तार लिए फिरता हूँ!
मैं स्नेह-सुरा का पान किया करता हूँ,
मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूँ,
जग पूछ रहा उनको, जो जग की गाते,
मैं अपने मन का गान किया करता हूँ!