उन्मादों में अवसाद लिए फिरता हूँ,
जो मुझको बाहर हँसा, रुलाती भीतर,
मैं, हाय 2 किसी की याद लिए फिरता हूँ,
कर यत्न मिटे सब, सत्य किसी ने जाना?
नादान वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना!
फिर छू न क्या जग, जो इस पर भी सीखे?
मैं सीख रहा हूँ, सीखा ज्ञान भुलाना!
प्रसंग: प्रस्तुत पक्तियाँ आधुनिक युग के प्रसिद्ध कवि हरिवंशराय ‘बच्चन’ द्वारा रचित कविता आत्म-परिचय ?ए अवतरित है। इसमें कवि अपनी जीवन-शैली का परिचय देता है।
व्याख्या: कवि अपने बारे में बताते हुए कहता है कि मैं तो यौवन की मस्ती में रहता हूँ। मेरे ऊपर अत्यधिक प्रेम की सनक सवार रहती है। इस मस्ती के मध्य दुःख की उदासी भी छिपी रहती है अर्थात् सुख-दुःख की मिली-जुली भावना मौजूद रहती है। मेरी यह मनःस्थिति मुझे बाहर से तो हँसते हुए अर्थात् प्रसन्नचित्त दर्शाती है, पर यह मुझे अंदर-ही-अंदर रुलाती रहती है। कवि कहता है कि उसने जवानी में किसी से प्रेम करके उसकी यादों को अपने हृदय में संजोया था। उसके अंदर-ही-अंदर रोने या व्यथित रहने का कारण यह है कि वह किसी (प्रिय) की याद को हृदय में बसाए हुए है और यह हर समय उसके साथ रहती है। उसके न मिलने पर वह दुःखी हो जाता है।
यह संसार बड़ा ही विचित्र है। इसको जानना अत्यंत कठिन है। इसको जानने के बहुत प्रयत्न किए गए, पर इसका सच किसी के समझ में नहीं आया। जहाँ पर कुछ समझदार एवं चतुर व्यक्ति होते हैं वहीं यहाँ नादान लोग टिके रहते हैं। लोगों के अपने-अपने स्वार्थ हैं। वह व्यक्ति निश्चय ही मूर्ख है जो जग की बातों में आ जाता है। मैं तो सीखे हुए ज्ञान को भुलाकर नई बातें सीख रहा हूँ। मैं तो संसार की बातें भूलकर अपने मन के मुताबिक चलना सीख रहा हूँ।
विशेष: 1. कवि अपने यौवनकाल की मनःस्थिति का विश्लेषण करता जान पड़ता है।
2. ‘उन्मादों में अवसाद’ विरोधमूलक स्थिति है।
3. व्यक्तिवादी दृष्टिकोण मुखरित हुआ है।
4. खड़ी बोली का प्रयोग है।
प्रस्तुत पक्तियों का सप्रसंग व्याख्या करें?
मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना,मैं फूट पड़ा, तुम कहते, छंद बनाना;
क्यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,
मैं दुनिया का हूँ एक नया दीवाना!
मैं दीवानों का वेश लिए फिरता हूँ,
मैं मादकता निःशेष लिए फिरता हूँ;
जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए,
मैं मस्ती का संदेश लिए फिरता हूँ!
प्रस्तुत पक्तियों का सप्रसंग व्याख्या करें?
मैं और, और जग और, कहाँ का नाता,मैं बना-बना कितने जग रोज मिटाता;
जग जिस पृथ्वी पर जोड़ा करता वैभव,
मैं प्रति पग से उस पृथ्वी को ठुकराता!
मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,
शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ,
हों जिस पर भूपोंके प्रासाद निछावर,
मैं वह खंडहर का भाग लिए फिरता हूँ।
दिये गये काव्याशं सप्रसंग व्याख्या करें?
दिये गये काव्याश का सप्रसंग व्याख्या करें?
मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ,
फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ;
कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर
मैं साँसों के वो तार लिए फिरता हूँ!
मैं स्नेह-सुरा का पान किया करता हूँ,
मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूँ,
जग पूछ रहा उनको, जो जग की गाते,
मैं अपने मन का गान किया करता हूँ!