Advertisement

प्रस्तुत पक्तियों का सप्रसंग व्याख्या करें?

मैं और, और जग और, कहाँ का नाता,

मैं बना-बना कितने जग रोज मिटाता;

जग जिस पृथ्वी पर जोड़ा करता वैभव,

मैं प्रति पग से उस पृथ्वी को ठुकराता!

मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,

शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ,

हों जिस पर भूपोंके प्रासाद निछावर,

मैं वह खंडहर का भाग लिए फिरता हूँ।


प्रसंग: प्रस्तुत पंक्तियाँ आधुनिक काल के कवि हरिवंशराय ‘बच्चन’ द्वारा रचित कविता ‘आत्म-परिचय’ से अवतरित हैं। इस कविता में कवि अपने पृथक् व्यक्तित्व का परिचय देता है।

व्याख्या: कवि बताता है कि मैं और हूँ तथा यह संसार और है। दोनों अलग- अलग हैं। इन दोनों मे कोई नाता (संबंध) नहीं है। मेरा तो इस संसार के साथ टकराव चलता रहता है। मैं तो इस जग (संसार) को मिटाने का प्रयास करता रहता हूँ। यह संसार तो इस धरती पर वैभव (धन-संपत्ति) जोड़ता रहता है। इस संसार के लोगों की रुचि धन-संपत्ति के सग्रह मे रहती है और एक मैं हूँ जो हर कदम पर इस धरती को अर्थात् संसार को ठुकराया करता हूँ। कवि इस जग में रहते हुए भी इस जग की प्रवृत्ति को नहीं अपनाता।

कवि अपने रोदन में भी राग लिए फिरता है। यह भी एक विरोधात्मक स्थिति है (रोदन में राग) अर्थात् कवि के रोने मे भी राग . जैसी मस्ती बनी रहती है। इसी प्रकार उसकी शीतल वाणी में भी आग समाई रहती है। (शीतल में आग विरोध मूलक स्थिति है।) वह इन विरोधाभास मूलक स्थितियों को साधते-साधते और मस्ती और दीवानगी के आलम में रहता है। इस धरती पर तो राजाओं के महल मौजूद हैं, पर कवि उस खंडहर का एक भाग अपने पास रखता है जिसे उस महल पर न्योछावर किया जा सके। अर्थात् वह इस दुनिया में है, पर इस दुनिया का तलबगार नहीं है।

विशेष: 1. कवि अपने और जग के अंतर को स्पष्ट करते हुए व्यक्तिवाद की प्रतिष्ठा करता जान पड़ता है।

2. कवि विरोधाभास अलंकार का प्रयोग अत्यंत सटीक रूप में करता है ‘रोदन मै राग’, ‘शीतल वाणी में आग’।

3. ‘बना-बना’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।

4. खड़ी बोली का प्रयोग है।

3357 Views

Advertisement

दिये गये काव्याश का सप्रसंग व्याख्या करें?
मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ,

फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ;

कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर

मैं साँसों के वो तार लिए फिरता हूँ!

मैं स्नेह-सुरा का पान किया करता हूँ,

मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूँ,

जग पूछ रहा उनको, जो जग की गाते,

मैं अपने मन का गान किया करता हूँ!


प्रस्तुत पक्तियों का सप्रसंग व्याख्या करें?

मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना,

मैं फूट पड़ा, तुम कहते, छंद बनाना;

क्यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,

मैं दुनिया का हूँ एक नया दीवाना!

मैं दीवानों का वेश लिए फिरता हूँ,

मैं मादकता निःशेष लिए फिरता हूँ;

जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए,

मैं मस्ती का संदेश लिए फिरता हूँ!


प्रस्तुत पक्तियों का सप्रसंग व्याख्या करें?
मैं यौवन का उन्माद लिए फिरता हूँ,

उन्मादों में अवसाद लिए फिरता हूँ,

जो मुझको बाहर हँसा, रुलाती भीतर,

मैं, हाय 2 किसी की याद लिए फिरता हूँ,

कर यत्न मिटे सब, सत्य किसी ने जाना?

नादान वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना!

फिर छू न क्या जग, जो इस पर भी सीखे?

मैं सीख रहा हूँ, सीखा ज्ञान भुलाना!


दिये गये काव्याशं सप्रसंग व्याख्या करें?


First 1 2 Last
Advertisement