देव कवि शब्दों का कुशल शिल्पी है जिसने एक-एक शब्द को बड़ी कुशलता से तराश कर अपने शब्द भंडार को समृद्ध किया है। उसकी वर्ण योजना में संगीतात्मकता और चित्रात्मकता विद्यमान है। भाव और वर्ण-विन्यास में संगति है। उसका एक-एक शब्द मोतियों की तरह कवित्त-सवैयों की जमीन पर सजाया गया है-
पाँयनि नूपुर मंजु बजैं, कीट किंकिनि कै धुनि की मधुराई।
साँवरे अंग लसै पट पीत, हिये हुलसै बनमाल सुहाई।।
कवि के पास अक्षय शब्द भंडार है। भिन्न-भिन्न पर्याय और विशेषणों द्वारा देव ने भावों की विभिन्न छवियों को उतारा है। उन्होंने अभिधा, लक्षणा और व्यंजना तीनों का प्रयोग सफलतापूर्वक किया है-
आरसी से अंबर में आभा-सी उजारी लगै,
प्यारी राधिका को प्रतिबिंब सो लगत चंद।।
कवि के शब्दों में तत्सम की अधिकता है। तद्भव शब्दावली का उन्होंने सुंदर प्रयोग किया है।
निम्नलिखित पद्यांश को पढ़कर प्रसंग सहित व्याख्या कीजिये:
डार द्रुम पलना बिछौना नव पल्लव के,
सुमन झिंगूला सोहै तन छबि भारी दै।
पवन झूलावै, केकी-कीर बरतावैं, ‘देव’,
कोकिल हलावै-हुलसावै कर तारी दै।।
पूरित पराग सों उतारो करै राई नोन,
कंजकली नायिका लतान सिर सारी दै।
मदन महीप जू को बालक बसंत ताहि,
प्रातहि जगावत गुलाब चटकारी दै।।