प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘क्षितिज भाग-2’ में संकलित कविता ‘संगतकार’ से अवतरित किया गया है जिसके रचयिता श्री मंगलेश डबराल हैं। कवि ने संगतकार के महत्त्व को प्रस्तुत किया है और माना है कि वह मुख्य गायक के गायन में सहायता ही नहीं देता बल्कि अपनी इंसानियत को भी प्रकट करता है।
व्याख्या- कवि कहता है कि मुख्य गायक ऊँचे स्वर में गाता है और उसकी आवाज मध्य सप्तक से ऊपर उठकर तार सप्तक पर पहुँचती है तो ध्वनि की उच्चता के कारण उसका गला बैठने लगता है। उसकी प्रेरणा उसका साथ छोड़ने लगती है और उसका उत्साह मंद पड़ने लगता है। उसका स्वर बुझने-सा लगता है और उसे प्रतीत होने लगता है कि वह गायन ठीक प्रकार से नहीं कर पाएगा। वह हतोत्साहित-सा हो जाता है। उसमें जब निराशा का भाव भरने लगने लगता है तब संगतकार उसे सांत्वना देता है, उसका हौसला बढ़ाता है। इससे मुख्य गायक का स्वर स्वयं ही कहीं से आ जाता है। वह फिर से उद्य स्वर में गाने लगता है। उसकी निराशा समाप्त हो जाती है। कभी-कभी संगतकार वैसे ही मुख्य गायक का साथ दे देता है। वह मुख्य गायक को यह अहसास कराना चाहता है कि वह अकेला नहीं है। वह उसका साथ देने के लिए उसके साथ है। वह उसे गाकर यह भी बता देता है कि जिस राग को पहले गाया जा चुका है उसे फिर से गाया जा सकता है। पर उसकी आवाज में हिचक का भाव अवश्य छिपा रहता है। उसे यह अवश्य लगता है कि उस मुख्य गायक से संकेत मिले बिना नहीं गाना चाहिए था। ऐसा भी हो सकता है कि वह अपने स्वर को मुख्य गायक के स्वर से ऊँचा उठाने की कोशिश नहीं करना चाहता था। संगतकार के द्वारा अपने स्वर को ऊंचा न उठाने की कोशिश उसकी असफलता नहीं मानी जानी चाहिए, बल्कि इसे तो उसकी इंसानियत समझना चाहिए। वह मनुष्यता के भावों को सामने रखकर और सोच विचार कर अपने संगीत-गुरु की आवाज से अपनी आवाज को ऊंचा नहीं उठाना चाहता। उसमें श्रद्धा का भाव है, जो सराहनीय है।