भाव स्पष्ट कीजिए:
(क) मरम न कोई जाना।
(ख) साखी सब्दै गावत भूले आत्म खबर न जाना।
(ग) गुरुवा सहित सिस्य सब बूड़े।
(क) हिन्दू और मुसलमान दोनों ही आत्म-तत्त्व और ईश्वर के वास्तविक रहस्य से अपरिचित हैं, क्योंकि मानवता के विरुद्ध धार्मिक कट्टर और आडम्बरपूर्ण कोई भी धर्म ईश्वर की परम सत्ता का अनुभव नहीं कर सकता।
(ख) साखी और सबद कबीर के आत्मापरक ज्ञान के उपदेश हैं। वे इनके माध्यम से अपनी संगत के साधुओं को आत्मज्ञान बताते थे। उस समय के हिन्दु. और मुसलमान साखी और सबद पर ध्यान नहीं देते थे और धार्मिक कट्टरपन और आडम्बरों में विश्वास रखते थे। साखी और सबद के गायन के बिना हिन्दू और मुसलमान आत्म-तत्त्व के ज्ञान से अपरिचित थे।
(ग) कबीर ऐसे शिष्य और गुरु दोनों को डूबे हुए मानते थे जो अपने अभिमान में चूर-चूर हों और माया के वशीभूत हों। धार्मिक पाखंड और आडम्बरों में विश्वास रखते हों, घर-घर जाकर जन्त्र-मंत्र की शिक्षा देते हों। इस प्रकार के गुरु और शिष्य दोनों ही अज्ञानी हैं तथा अज्ञान के अंधकार में डूबे हुए हैं।
कबीर के दोहों को साखी क्यों कहा गया है?
हम तौ एक एक करि जाना।
दोइ कहै तिनहीं कीं दोजग जिन नाहिंन पहिचाना।।
एकै पवन एक ही पानीं एकै जोति समांना।
एकै खाक गढ़े सब भाई एकै कोंहरा सांना।।
जैसे बाड़ी काष्ट ही काटै अगिनि न काटै कोई।
सब घटि अंतरि तूँही व्यापक धरै सरूपै सोई।।
माया देखि के जगत लुभानां काहे रे नर गरबांना।
निरभै भया कछू नहिं व्यापै कहै कबीर दिवाँनाँ।।
कबीर के जीवन और साहित्य के विषय में आप क्या जानते हैं?
संतो देखत जग बौराना।
साँच कहीं तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना।।
नेमी देखा धरमी देखा, प्रात करै असनाना।
आतम मारि पखानहि पूजै, उनमें कछु नहिं ज्ञाना।।
बहुतक देखा पीर औलिया, पढ़ै कितेब कुराना।
कै मुरीद तदबीर बतावैं, उनमें उहै जो ज्ञाना।।
आसन, मारि डिंभ धरि बैठे, मन में बहुत गुमाना।
पीपर पाथर पूजन लागे, तीरथ गर्व भुलाना।।
टोपी पहिरे माला पहिरे, छाप तिलक अनुमाना।
साखी सब्दहि गावत भूले, आतम खबरि न जाना।।
हिन्दू कहै मोहि राम पियारा, तुर्क कहै रहिमाना।
आपस में दोउ लरि लरि मूए, मर्म न काहू जाना।।
घर-घर मंतर देत फिरत हैं, महिमा के अभिमाना।
गुरु के सहित सिख सब बूड़े, अंत काल पछिताना।।
कहै कबीर सुनो हो संतो, ई सब भर्म भुलाना।
केतिक कहीं कहा नहिं मानै, सहजै सहज समाना।।