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कबीर के दोहों को साखी क्यों कहा गया है?


साखी ‘शब्द’ या ‘साक्षी’ का अपभ्रंश रूप है। इस रूप में यह शब्द उस अनुभूति का द्योतक है, जिसको कवि ने अपनी बुद्धि से नहीं वरन् अपने अंत:करण से साक्षात्कार किया है। ये साखियाँ उस ज्ञान की साक्षी भी हैं और उसका साक्षात्कार कराने वाली भी हैं। ‘साखी’ शब्द में ‘शिक्षा’` या ‘सीख’ अर्थात् उपदेश देने का अथ भी निहित है। इन साखियों में नैतिक उपदेश का समावेश मिलता है। छंद की दृष्टि से ‘साखी’ दोहा के निकट है।

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हम तौ एक एक करि जाना।

दोइ कहै तिनहीं कीं दोजग जिन नाहिंन पहिचाना।।

एकै पवन एक ही पानीं एकै जोति समांना।

एकै खाक गढ़े सब भाई एकै कोंहरा सांना।।

जैसे बाड़ी काष्ट ही काटै अगिनि न काटै कोई।

सब घटि अंतरि तूँही व्यापक धरै सरूपै सोई।।

माया देखि के जगत लुभानां काहे रे नर गरबांना।

निरभै भया कछू नहिं व्यापै कहै कबीर दिवाँनाँ।।


कबीर के जीवन और साहित्य के विषय में आप क्या जानते हैं?


भाव स्पष्ट कीजिए:

(क) मरम न कोई जाना।

(ख) साखी सब्दै गावत भूले आत्म खबर न जाना।

(ग) गुरुवा सहित सिस्य सब बूड़े।



संतो देखत जग बौराना।

साँच कहीं तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना।।

नेमी देखा धरमी देखा, प्रात करै असनाना।

आतम मारि पखानहि पूजै, उनमें कछु नहिं ज्ञाना।।

बहुतक देखा पीर औलिया, पढ़ै कितेब कुराना।

कै मुरीद तदबीर बतावैं, उनमें उहै जो ज्ञाना।।

आसन, मारि डिंभ धरि बैठे, मन में बहुत गुमाना।

पीपर पाथर पूजन लागे, तीरथ गर्व भुलाना।।

टोपी पहिरे माला पहिरे, छाप तिलक अनुमाना।

साखी सब्दहि गावत भूले, आतम खबरि न जाना।।

हिन्दू कहै मोहि राम पियारा, तुर्क कहै रहिमाना।

आपस में दोउ लरि लरि मूए, मर्म न काहू जाना।।

घर-घर मंतर देत फिरत हैं, महिमा के अभिमाना।

गुरु के सहित सिख सब बूड़े, अंत काल पछिताना।।

कहै कबीर सुनो हो संतो, ई सब भर्म भुलाना।

केतिक कहीं कहा नहिं मानै, सहजै सहज समाना।।


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