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वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता,
मैं बेकरार हूँ आवाज में असर के लिए।
तेरा निजाम है सिल दे जुबान शायर की,
ये एहतियात जरूरी है इस बहर के लिए।
जिएँ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले,

मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।


प्रसंग: प्रस्तुत पंक्तियाँ दुष्यंतुमार की गजल ‘साये में धूप’ से अवतरित हैं। व्याख्या-कवि उन लोगों पर कटाक्ष करता है जो कहते हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता। कवि के अनुसार पत्थर भी पिघल सकता है। कवि इस बात के लिए बेचैन है कि उसकी आवाज में असर पैदा हो सके। वह अपनी आवाज को असरदार बनाना चाहता है। वह राजनीतिज्ञों पर व्यंग्य करते हुए कहता है कि उनका शासन है, अत: वे किसी शायर की जुबान को सिल सकते हैं अर्थात् अभिव्यक्ति पर पाबंदी लगा सकते हैं। गजल के किसी शेर के लिए इस प्रकार की सावधानी बहुत जरूरी भी है।

कवि चाहता है कि वह अपने बगीचे के नीचे जिए अर्थात् अपनी मन-मर्जी से जीवन बिताए। उस पर किसी का नियंत्रण नहीं होना चाहिए। इसी आजादी को पाने के लिए मरना भी पड़े तो गैर की गली में मरें।

विशेष- 1. कवि ने उर्दू के कठिन शब्दों का प्रयोग किया है, यथा-मुतमइन, निजाम, एहतियात, बहर आदि।

2. ‘गुलमोहर’ का प्रतीकात्मक प्रयोग हुआ है।

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कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए,
कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।
यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है,
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए।


न हो कमीज तो पाँवों से पेट ढँक लेंगे,
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए।
खुदा नहीं, न सही, आदमी का ख्वाब सही,
कोई हसीन नजारा तो है नजर के लिए।


‘साये में धूप’ गजल का प्रतिपाद्य लिखिए।


दुष्यंत कुमार के जीवन का परिचय देते हुए उनकी साहित्यिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।


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