प्रसंग-प्रस्तुत पंक्तियाँ संथाली कवयित्री निर्मला पुतुल द्वारा रचित कविता ‘आओ, मिलकर बचाएं, से अवतरित हैं। यह कविता मूल रूप से संथाली भाषा में रचित है। इसका हिंदी रूपातंरण अशोक सिंह ने किया है। कवयित्री अपने समाज के मूल चरित्र को एवं परिवेश को बचाने के लिए सचेष्ट है।
व्याख्या-कवयित्री लोगों को आह्वान करती है कि आओ, हम सब मिलकर अपनी बस्तियों को नंगी होने से बचाएँ अर्थात् इसके पर्यावरण की रक्षा करें। वृक्षों की अंधाधुंध कटाई से हमारी बस्तियाँ नंगी हो जाएँगी। इन बस्तियों के मूल चरित्र को बचाने के लिए इन्हें शहरी प्रभाव से बचाना होगा। यदि हमने ऐसे प्रयास नहीं किए तो यह पूरी बस्ती डूबकर नाश होने के कगार पर पहुँच जाएगी। हमें अपनी बस्ती को बचाए रखना होगा।
हम लोगों को अपने चरित्र की विशिष्टता को भी बचाकर रखना है। हमारे चेहरे पर संथाल परगना की मिट्टी का रंग झलकना चाहिए। हमारी भाषा में भी शहरी बनावटीपन नहीं आना चाहिए। इस पर झारखंडीपन की झलक होनी चाहिए।
कवयित्री आदिवासी समाज को शहरी प्रभाव से बचाए रखने में विश्वास रखती है। यह शहरी प्रभाव बस्ती के मूल चरित्र को बिगाड़कर रख देगा।
प्रसंग-प्रस्तुत पक्तियाँ संथाली कवयित्री निर्मला पुतुल द्वारा रचित कविता ‘आओ मिलकर बचाएं’ से अवतरित हैं। कवयित्री आदिवासी समाज के मूल चरित्र को बचाए रखने के लिए कृतसंकल्प है।
व्याख्या-कवयित्री आदिवासी समाज में आ रही आलस्य की प्रवृत्ति पर व्यंग्य करती है। उनकी दिनचर्या में ठंडापन आता चला जा रहा है, जीवन में उत्साह का अभाव होता जा रहा है। उनके मन में हरापन अर्थात् खुशी का आना आवश्यक है। इसके साथ-साथ उनके मन में भोलापन होना चाहिए। उनके स्वभाव में अक्खड़पन के साथ-साथ जुझारूपन की भी आवश्यकता है। तभी वे अपने मूल चरित्र को बनाए रख पाएंगे। संथाली आदिवासी की पहचान उनके दिल में छिपी आग (उत्साह) धनुष की डोरी पर चढ़ा तीर और कंधे पर कुन्हाड़ी है। उन्हें इस पहचान को बनाए रखना है।
झारखंड के परिवेश में जंगल की ताजा हवा, नदियों की पवित्रता, पहाड़ों की चुप्पी, गीतों की धुन, मिट्टी का सोंधापन तथा फसलों की लहलहाहट समाई रहती है। इन सबसे मिलकर यहाँ का विशिष्ट स्वरूप निर्मित होता है।
रस्तुत पंक्तियाँ संथाली कवयित्री निर्मला पुतुल द्वारा रचित कविता ‘आओ, मिलकर बचाएँ’ से अवतरित हैं। कवयित्री आदिवासी समाज के परिवेश और संस्कृति के मूल स्वरूप को बचाए रखना चाहती है।
व्याख्या-कवयित्री का कहना है कि यहाँ के समाज के लिए जिन स्थितियों की आवश्यकता है, उनमें मौज-मस्ती करने के लिए खुले गिन (स्थान) की जरूरत है। उन्हें मस्ती में आने के लिए गीत भी चाहिए। उनके जीवन में हँसी की खिलखिलाहट भी होनी जरूरी है। जब कभी रोने की जरूरत हो तो उन्हें एकांत की आवश्यकता है। बच्चों को खेलने के लिए मैदान चाहिए और पशुओं को चरने के लिए हरी- भरी घास भी चाहिए। बूढ़े व्यक्तियों के लिए पहाड़ों जैसी शांति की भी आवश्यकता है। ये सभी बातें मिलकर आदिवासी समाज के मूल स्वरूप को बनाए रखने में सहायक होंगी। कवयित्री आदिवासियों की जरूरतों पर प्रकाश डालती है।
प्रसंग- प्रस्तुत पक्तियाँ संथाली कवयित्री निर्मला छल द्वारा रचित कविता ‘आओ, मिलकर बचाएँ’ से अवतरित हैं। इसमें कवयित्री वर्तमान परिस्थितियों में विश्वास के सकंट से उबरने की प्रेरणा देती है।
व्याख्या-कवयित्री कहती है कि आज के वातावरण में अविश्वास की भावना समाई हुई है। इसे विश्वास में परिवर्तित करने की आवश्यकता है। यहाँ के समाज को विश्वास और उम्मीद की जरूरत है। इनकी बहाली होनी चाहिए। उन लोगों के मन में थोड़े से सपने भी जगाने होंगे। इससे उनका जीवन सुखी बन सकेगा।
कवयित्री लोगों को आह्वान करती है कि आओ, हम सब मिलकर उस सब को बचाने का प्रयास करें जो शेष रह गया है। कवयित्री के अनुसार अभी भी स्थिति अधिक नहीं बिगड़ी है। अभी बहुत कुछ बचा हुआ है, इसे सहेजना भी काफी रहेगा। जो शेष है, उसे बचाकर भी हम अपनी संस्कृति की रक्षा करने में समर्थ हो सकेंगे।
निर्मला पुतुल के जन्म का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनकी साहित्यिक विशेषताओं एवं रचनाओं का उल्लेख कीजिए।
निर्मला पुतुल का जन्म एक आदिवासी परिवार में 1972 ई. में दुमका (झारखंड) में हुआ था। इनका आरंभिक जीवन बहुत संघर्षमय रहा। घर में शिक्षा का माहौल होने (पिता और चाचा शिक्षक थे) के बावजूद रोटी की समस्या से जूझने के कारण नियमित अध्ययन बाधित होता रहा।
नर्स बनने पर आर्थिक कष्टों से मुक्ति मिल जाएगी, यह विचार कर इन्होंने नर्सिंग में डिप्लोमा किया और काफी समय बाद इग्नू से स्नातक की डिग्री प्राप्त की। संथाली समाज और उसके राग-बोध से गहरा जुड़ाव पहले से था, नर्सिग की शिक्षा के समय बाहर की दुनिया से भी परिचय हुआ। दोनों समाजों की क्रिया-प्रतिक्रिया से वह बोध विकसित हुआ जिससे वह अपने परिवेश की वास्तविक स्थिति को समझने में सफल हो सकीं।
इन्होंने आदिवासी समाज की विसंगतियों को तल्लीनता से उकेरा है-कड़ी मेहनत के बावजूद खराब दशा, कुरीतियों के कारण बिगड़ती पीढ़ी, थोड़े लाभ के लिए बड़े समझौते, पुरुष वर्चस्व, स्वार्थ के लिए पर्यावरण की हानि, शिक्षित समाज का दिक्कुओं और व्यवसायियों के हाथों की कठपुतली बनना आदि वे स्थितियाँ हैं जो पुतुल की कविताओं के केंद्र में हैं।
वे आदिवासी जीवन के कुछ अनछुए पहलुओं से कलात्मकता के साथ हमारा परिचय कराती हैं और संथाली समाज के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं को बेबाकी से सामने रखती हैं। संथाली समाज में जहाँ एक ओर सादगी, भोलापन, प्रकृति से जुड़ाव और कठोर परिश्रम करने की क्षमता जैसे सकारात्मक तत्त्व हैं, वहीं दूसरी ओर उस समाज में अशिक्षा, कुरीतियाँ और शराब की ओर बढ़ता झुकाव भी है। निर्मला पुतुल की प्रमुख रचनाएँ : नगाड़े की तरह बजते शब्द, अपने घर की तलाश में।