एक होली का त्योहार छोड़ दें तो भारतीय परंपरा में व्यक्ति के अपने पर हँसने, स्वयं को जानते-बूझते हास्यास्पद बना डालने की परंपरा नहीं के बराबर है। गाँवों और लोक-संस्कृति में तब भी वह शायद हो, नगर-सभ्यता में तो वह थी ही नहीं। चैप्लिन का भारत में महत्त्व यह है कि वह ‘अंग्रेजों जैसे’ व्यक्तियों पर हँसने का अवसर देते हैं। चार्ली स्वयं पर सबसे ज्यादा तब हँसता है जब वह स्वयं को गर्वोन्मत्त, आत्म-विश्वास से लबरेज, सफलता, सभ्यता, संस्कृति तथा समृद्धि की प्रतिमूर्ति, दूसरों से ज्यादा शक्तिशाली तथा श्रेष्ठ, अपने को ‘वज्रादपि कठोराणि’ अथवा ‘दूनी कुसुमादपि’ क्षण में दिखलाता है।
1. होली का त्यौहार किस रूप में क्या अवसर प्रदान करता है?
2. अपने पर हंसने के सदंर्भ में लोक-सस्कृति एवं नगर-सभ्यता में मूल अतंर क्या था और क्यों?
3. ‘अंग्रेजों जैसे व्यक्तियों’ वाक्यांश में निहित व्यंग्यार्थ को स्पष्ट कीजिए।
4. चार्ली जिन दशाओं में अपने पर हंसता है, उन दशाओं में ऐसा करना अन्य व्यक्तियों के लिए संभव क्यों नहीं है?



1. होली का त्यौहार व्यक्ति को अपने पर हँसने तथा मौज-मस्ती करने का अवसर प्रदान करता है।
2. अपने पर हँसने के संदर्भ में लोक-संस्कृति एवं नगर सभ्यता में मूल अंतर यह था कि लोक-संस्कृति में तो इसके अनेक अवसर थे पर नगर सभ्यता में ये अवसर मिलते ही न थे। वह एक ओढ़ी हुई गंभीरता होती है।
3. ‘अंग्रेजों जैसे व्यक्तियों’ वाक्यांश में निहित व्यंग्यार्थ यह है कि बनावटी जिदंगी जीने वाले व्यक्तियों अर्थात् जो हैं तो भारतीय पर अंग्रेजी सभ्यता के प्रभावस्वरूप स्वयं को अंग्रेज सिद्ध करने पर तुले हुए हैं।
4. चार्ली जिन दशाओं में अपनै पर हँसता है उन दशाओं में ऐसा करना अन्य व्यक्तियों के लिए संभव इसलिए नहीं है क्योंकि इसमें अत्यधिक आत्मविश्वास की आवश्यकता होती है।

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अपने जीवन के अधिकांश हिस्सों में हम चार्ली के टिली ही होते हैं जिसके रोमांस हमेशा पंक्चर होते रहते हैं। हमारे महानतम क्षणों में कोई भी हमें चिढ़ाकर या लात मारकर भाग सकता है। अपने चरमतम शूरवीर क्षणों में हम क्लैव्ज औश्र पलायन के शिकार हो सकते हैं। कभी-कभार लाचार होते हुए जीत भी सकते हैं। मूलत: हम सब चार्ली हैं क्योंकि हम सुपरमैन नहीं हो सकते। सत्ता, शक्ति, बुद्धिमत्ता, प्रेम और पैसे के चरमोत्कर्षों में जब हम आइला देखते हैं तो चेहरा चार्ली-चार्ली हो जाता है।

इस गद्याशं के लेखक तथा पाठ का नाम लिखिए।

अपने जीवन के अधिकाशं हिस्सों में हम चार्ली के टिली कैसे हो जाते हैं

हमारा चेहरा कब चार्ली-चार्ली हो जाता है?

हमारा चेहरा कब चार्ली-चार्ली हो जाता है?


इस गद्यांश के लेखक विष्णु खरे हैं तथा पाठ का नाम चार्ली चैप्लिन यानी हम सब।

जीवन-हर्ष-विवाद, राग-विराग सुख-दु:ख, करुणा, हास्य आदि के सामंजस्य है। चार्ली जिस प्रकार करुणा में हास्य का पुट भर देते हैं उसी प्रकार हम जीवन के अधिकांश हिस्सों में रोते-रोते हँसने लगते हैं तथा हँसते-हँसते रोने लगते हैं। कई बार सुखी होकर भी हम दु:खी दिखाई देते हैं तथा दु:खी होकर भी सुखी लगते हैं। इस प्रकार हम जीवन के अधिकांश हिस्सों में चार्ली के टिली हो जाते हैं।

जब हम सत्ता, शक्ति, बुद्धिमत्ता, प्रेम और पैसे के चरमोत्कर्षों में आइना देखते हैं तब हमारा चेहरा चार्ली-चार्ली हो जाता है।

हमारे महानतम क्षणों में कोई भी हमें चिढ़ाकर या लात मारकर भाग सकते हैं। उन शूरवीर क्षणों में हम पलायन के शिकार हो जाते हैं। कभी-कभार लाचार होते हुए जीत भी जाते हैं। इस प्रकार चार्ली के रोमांस हमारे जीवन में घटित होते रहते हैं।

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