अमेरिका में फ़सल काटने वाली मशीनों के फ़ायदे-नुकसान क्या-क्या थे?
फ़ायदे:
(i) इसने मानव श्रम में कटौती और कृषि उत्पादन में वृद्धि की। उदहारण: 1831 में सायरस मैक्कॉर्मिक ने एक ऐसे औज़ार का आविष्कार किया जो एक ही दिन में इतना काम कर देता था जितना कि 16 आदमी हँसियों के साथ कर सकते थे।
(ii) इन मशीनों से ज़मीन के बड़े टुकड़ों पर फसल काटने, ठूँठ निकालने, घास हटाने और ज़मीन को दोबारा खेती के लिए तैयार करने का काम बहुत आसान हो गया था। विद्युत से चलने वाली ये मशीनें इतनी उपयोगी थीं कि उनकी सहायता से सिर्फ़ चार व्यक्ति मिलकर एक मौसम में 2000 से 4000 एकड़ भूमि पर फ़सल पैदा कर सकते थे।
(iii) संयुक्त राज्य अमेरिका दुनिया के सबसे बड़े गेहूं उत्पादकों और निर्यातकों में से एक बन गया।
नुकसान:
(i) बिजली चालित मशीनों के आगमन से मज़दूरों की जरूरत काफी काम हो गई। यह मशीन बेरोज़गारी का कारण बनी। महायुद्ध के उपरांत उत्पादन की हालत यह हो गई थी की बाजार गेहूँ से अटा पड़ा था।
(ii) गेहूँ के दाम गिरने से आयत बाजार ढह गया था। 1930 के दशक की महामंदी का असर हर जगह दिखाई पड़ता था।
अंग्रेज़ अफ़ीम की खेती करने के लिए भारतीय किसानों पर क्यों दवाब दाल रहे थे?
(i) ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी चीन से चाय और रेशन खरीदकर इंग्लैंड में बेचा करती थी। चाय का व्यापार दिनोंदिन महत्वपूर्ण होता गया लेकिन इंग्लैंड में इस समय ऐसी किसी वस्तु का उत्पादन नहीं किया जाता था जिसे चीन के बाजार में आसानी से बेचा जा सके।
(ii) ब्रिटिश व्यापारी चाय के बदले चाँदी के सिक्के दिया करते थे। यह इंग्लैंड के खजाने को खाली करता था।
(iii) चाँदी के इस क्षय को रोकने के लिए वे चीन में अफीम का व्यापार करना चाहते थे। जहाँ चीन अफ़ीमचियों का देश बन गया था वहीं इंग्लैंड का चाय व्यापार दिनोंदिन प्रगति कर रहा था। अफ़ीम के इस अवैध व्यापार से हासिल की गई राशि का इस्तेमाल चाय खरीदने के लिए किया जा रहा था।
(iv) अंग्रेज़ों के लिए अफ़ीम का भारत से लेकर चीन निर्यात करना सस्ता साबित हुआ।
अमेरिका में गेहूँ की खेती में आएं उछाल और बाद में पैदा हुए पर्यावरण संकट से हम क्या सबक ले सकते हैं?
अमेरिका में गेहूँ की खेती में आएं उछाल और बाद में पैदा हुए पर्यावरण संकट को देखते हुए हम कह सकते हैं कि:
(i) हम पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता की सराहना करते हैं। यदि हम प्राकृतिक संसाधनों को आँख बंद करके नष्ट कर देते हैं, अंत में, सभी मानव अस्तित्व खतरे में होंगे। मनुष्य को पर्यावरण का सम्मान करना चाहिए।
(ii) उन्नीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों में गेहूँ पैदा करने वाले किसानों ने ज़मीन के हर संभव हिस्से से घास साफ़ कर डाली थी। ये किसान ट्रैक्टरों की सहायता से इस ज़मीन को गेहूँ की खेती के लिए तैयार कर रहे थे। रेतीले तूफ़ान इसी असंतुलन से पैदा हुए थे। यह सारा क्षेत्र रेत के एक विशालकाय कटोरे में बदल गया था यानी खुशहाली का सपना एक डरावनी हकीकत बनकर रह गया था।
(iii) प्रवासियों को लगता था कि वे सारी ज़मीन को अपने कब्ज़े में लेकर उसे गेहूँ की लहलहाती फ़सल में बदल डालेंगे और करोड़ों में खेलने लगेंगे। लेकिन तीस के दशक में उन्हें यह बात समझ में आई की के पर्यावरण के संतुलन का सम्मान करना कितना ज़रूरी है।
इससे हमें यह सिख मिलती कि हमें पर्यावरण का संरक्षण करना चाहिए तथा उसके साथ मिल-जुलकर रहना चाहिए।
भारतीय किसान अफ़ीम की खेती के प्रति क्यों उदासीन थे?
भारतीय किसान अफ़ीम की खेती के लिए निम्नलिखित कारणों से उदासीन थे:
(i) सबसे पहले किसानों को अफ़ीम की खेती के लिए सबसे उर्वर ज़मीन पर करनी होती थी। खासतौर पर ऐसी ज़मीन पर जो गाँव के पास पड़ती थी। आमतौर पर ऐसी उपजाऊ ज़मीन पर किसान दाल पैदा करते थे। अच्छी और उर्वर ज़मीन पर अफ़ीम बोने का मतलब दाल की पैदावार से हाथ धोना था। उन्हें दाल की फ़सल के लिए कम उर्वर ज़मीन का इस्तेमाल करना पड़ रहा था। खराब ज़मीन में दालों का उत्पादन न केवल अनिश्चित रहता था बल्कि उस की पैदावार भी काफी कम रहती थी।
(ii) दूसरे बहुत सारे किसानो के पास ज़मीन थी ही नहीं। अफ़ीम की खेती के लिए ऐसे किसानों को भू-स्वामियों को लगान देना पड़ता था। वे इन भूस्वामियों से बटाई पर ली गई ज़मीन पर अफ़ीम उगाते थे। गाँव के पास की ज़मीन की लगान दर बहुत ऊँची रहती थी।
(iii) तीसरे अफ़ीम की खेती बहुत मुश्किल से होती थी। अफ़ीम के नाज़ुक पौधों को जिंदा रखना बहुत मेहनत का काम था। अफ़ीम बोने के बाद किसान दूसरी फ़सलों पर ध्यान नहीं दे पाते थे।
(iv) अंत में, सरकार अफ़ीम बोने के बदले किसानों को बहुत कम दाम देती थी। किसानों के लिए सरकारी मूल्य पर अफ़ीम पैदा करना घाटे का सौदा था।