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आचार्य धर्मानंद दामोदर कोसाम्बी – बौद्ध विद्वान और पालि निष्णात

आचार्य धर्मानंद दामोदर कोसाम्बी ( 9 October 1876 – 4 June 1947) जाने माने बौद्ध धर्म के विद्वान और पालि भाषा के निष्णात थे। वे जाने माने गणितज्ञ और इतिहासकार दामोदर धर्मानंद कोशाम्बी के पिता थे। आजकल संस्कृत का अभ्यास भी हमारे देश मे कम हो रहा है, ऐसे समय मे कोसाम्बीजी के बारे मे जानना बहुत उपयोगी रहेगा। आज हमे स्वतंत्र देश मे पुरानी भाषाओ का अभ्यास कठिन लगता है तब विदेशी शासन मे उन्होने पालि और संस्कृत की कितनी सेवा की और हमारी सांस्कृतिक जड़ो को जोड़ने मे उनका कितना योगदान है ये हम सबको जानना चाहिए।


आचार्य धर्मानंद दामोदर कोसाम्बी का जन्म गोवा मे संखवल नामक गाँव मे 1876 मे एक रूढ़िचुस्त ब्राह्मण परिवार मे हुआ था। 16 साल की उम्र मे उनकी शादी हो गई थी। उन्हे ज्ञान की असीम भूख थी और वैवाहिक जीवन को अपने ज्ञान प्राप्ति के मार्ग मे वे बाधक मानते थे। उन्होने गृह त्याग के अनेक प्रयास किए पर हिम्मत के अभाव मे वे पुन: अपने घर वापस आ जाते। अंतत: उनकी प्रथम पुत्री माणिक के जन्म पश्चात उन्होने (चार साल के लिए) घर छोड़ दिया। इस अवधि मे उनकी पत्नी बालाबाई को अनेक कठिनाइया भी झेलनी पड़ी।

यहाँ से कोसाम्बीजी की ज्ञान साधना शुरू हुई। सर्वप्रथम वे संस्कृत का अध्ययन करने पुना गए। पुना से उज्जैन, इंदौर, ग्वालियर और प्रयाग होते हुए आखिर वे वाराणसी पहुंचे। वाराणसी मे गंगाधरपंत शास्त्री और नागेश्वरपंत धर्माधिकारी की निश्रा मे उन्होने संस्कृत की उत्कृष्ट शिक्षा प्राप्त की। काशी मे उनका निवास बड़ा कठिनाइयो से भरा रहा। कभी कभी तो उन्हे रहने और खाने का इंतजाम करना भी मुश्किल बना। उसी समय मे काशी मे भयंकर प्लेग फैला, जिसने उनकी मुसीबते ज्यादा बढ़ाई। इन विपरीत परिस्थितियो मे भी उन्होने संस्कृत अध्ययन मे काफी प्रगति करी।
कुछ समय पश्चात आचार्य धर्मानंद दामोदर कोसाम्बी े बौद्ध धर्म का उसकी मूल भाषा पालि मे अध्ययन करने के लिए नेपाल गए। पर वहाँ बौद्ध धर्म की दारुण स्थिति देखकर वे बड़े निराश हुए। वहाँ से वे कलकता होते हुए श्रीलंका गए। यहाँ उन्होने विध्योदय यूनिवर्सिटी मे दाखिला लिया। कोसाम्बीजी ने यहाँ श्री सुमंगलाचार्य के निर्देशन मे तीन साल अध्ययन किया और सन 1902 मे बौद्ध साधु बने। वहाँ से वे बर्मा (म्यांमार) गए और बर्मीज भाषा मे बुद्धिस्ट साहित्य का तुलनात्मक अभ्यास किया। कुल करीब सात साल विदेश मे रहने के बाद आचार्य धर्मानंद दामोदर कोसाम्बी भारत परत लौटे।

भारत आने के पश्चात वे कलकत्ता यूनिवर्सिटी मे रीडर बने और अपनी पत्नी तथा पुत्री को अपने पास बुला लिया। यहाँ उनके पुत्र दामोदर का 1907 मे जन्म हुआ। बाद मे उन्होने अपनी विश्वविद्यालय की नौकरी छोड़ दी और बड़ौदा मे रिसर्च फैलो बने। तत्पश्चात उन्होने समग्र पश्चिम भारत मे व्याख्यान देना शुरू किया। अब पुना के फर्ग्युसन कॉलेज से जुड़े। मुंबई मे उनकी भेट हावर्ड यूनिवर्सिटी के डॉ॰ जेम्स वुड्स से हुई, जो उस समय संस्कृत, अर्धमगधी और पालि के विद्वान को खोज रहे थे। डॉ॰ वुड्स के निमंत्रण पर वे बौद्ध फिलोसोफी की पुस्तक विशुद्धिमग्गा पर काम करने हावर्ड पहुंचे। जहां
आचार्य धर्मानंद दामोदर कोसाम्बी ने रशियन भाषा पढ़ी। वे 1929 मे रशिया भी गए और लेनिनग्राड यूनिवर्सिटी मे पालि भाषा सिखाने लगे।

जब भारत मे स्वातंत्र संग्राम अपने उत्कर्ष की और बढने लगा तो कोसाम्बीजी ने स्वदेश लौट कर अहमदाबाद की गुजरात विद्यापीठ मे बिना किसी पारिश्रमिक के पढ़ना शुरू किया। उन्होने नमक सत्याग्रह के लिए स्वयं सेवक जुटाने का काम भी किया। उन्हे नमक सत्याग्रह मे भाग लेने की वजह से 6 साल की सजा हुई। जेलयात्रा उनके स्वास्थ्य पर बड़ी विपरीत असर निपजाने वाली रही।

बौद्ध धर्म के काम के साथ साथ आचार्य धर्मानंद दामोदर कोसाम्बी ने जैन साहित्य का भी अभ्यास किया था। उन्होने जैन साहित्य के भाषांतर मे भी योगदान दिया। मुंबई मे उन्होने बहुजनविहार नाम से एक बौद्ध विहार की भी स्थापना की जो की आज भी कार्यरत है।

जैन धर्म की असर तले कोसाम्बीजी ने आजीवन उपवास करके अपने प्राण त्याग ने की विधि जिसे ‘संथारा’ कहते है, से जीवन त्यागने का निश्चय किया। गांधीजी के आग्रह पर उन्हे निसर्गोपचार करने और संथारा व्रत छोड़ने के लिए वर्धा बुलाया गया। जहां सेवाग्राम मे उन्होने गांधीजी का आग्रह रखने के लिए दैनिक एक चम्मच जितना करेला का रस लेना स्वीकार किया। वे बुद्ध पूर्णिमा के दिन देह त्यागना चाहते थे पर जीवन डोरी थोड़ी लंबी चली। उपवास शुरू करने के 30 दिनों बाद 4 जून 1947 को वे अनंत की यात्रा पर चल पड़े।

आचार्य धर्मानंद दामोदर कोसाम्बी ने भगवान बुद्ध की बहूप्रचलित आत्मकथा मराठी मे 1940 मे लिखी। जिसका बाद मे अँग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओ मे साहित्य अकादमी ने भाषांतर भी करवाया। इसके साथ साथ उन्होने बौद्ध और जैन धर्म पर 11 पुस्तके भी लिखी। उन्होने मराठी मे बोधिसत्व नामक नाटक भी लिखा। उनकी आत्मकथा का नाम ‘निवेदन’ है।

Rina Gujarati

I am working with zigya as science teacher. Gujarati by birth and living in Delhi. I believe history as a everyday guiding source for all and learning from history helps avoiding mistakes in present.

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