स्वामी निगमानंद या निगमानंद सरस्वती (2 अगस्त 1976 – 13 जून 2011), जिन्हें अक्सर गंगा पुत्र निगमानंद के रूप में जाना जाता है, एक हिंदू भिक्षु थे, जो 19 नवंबर 2011 को गंगा नदी को प्रदूषण से बचाने के लिए नदी के तल में अवैध खनन के विरुद्ध भूख हड़ताल पर चले गए थे। और उनके उपवास के 115 वें दिन 13 जून को उनका निधन हो गया।
गंगा नदी में खनन के खिलाफ आंदोलन दिसंबर 1997 में शुरू हुआ था, और निगमानंद इस आंदोलन का एक केंद्रीय व्यक्तित्व था।
स्वामी निगमानंद सरस्वती का जन्म 2 अगस्त 1976 को स्वरूपम कुमार झा “गिरीश” के रूप में हुआ था। उनका परिवार बिहार के दरभंगा जिले के लाडरी गाँव से आया था। स्वरूपम को अक्सर उनकी मां कल्पना झा और अन्य करीबी रिश्तेदारों और दोस्तों द्वारा गिरीश कहते थे। वे 1993-95 में स्कूल की पढ़ाई के बाद दिल्ली में इंजीनियरिंग के प्रवेश की तैयारी कर रहे थे। उसी समय के दौरान उन्होंने 2 अक्टूबर 1995 को सत्य की खोज के लिए अपनी पढ़ाई छोड़ दी और गृहत्याग भी किया। उन्होंने कही जाने से पहले अपने परिवार को एक पत्र लिखकर जाने की सूचना देदी थी, पर वे कहाँ जा रहे है ये नहीं बताया था। युवा गिरीश ने कुछ वर्षों तक भिक्षा पर रहने वाले एक साधु के जीवन को जारी रखा। इस अवधि के दौरान उन्होंने सत्य की तलाश के लिए उत्तर भारत के विभिन्न हिस्सों में यात्रा की। तीन साल के बाद उनके माता-पिता को पता चला कि निगमानंद (गिरीश) मातृ सदन – हरिद्वार के बाहरी इलाके में एक धर्मशाला, जिसकी स्थापना स्वामी शिवानंद और उनके शिष्यों गोकुलानंद सरस्वती और निखिलानंद सरस्वती ने की थी, मे रह रहे है।
1997 में, उत्तराखंड के हरद्वार क्षेत्र में गंगा के दाहिने किनारे पर युवा कार्यकर्ता भिक्षुओं का एक समूह एकत्र हुआ। उन्होंने भ्रष्टाचार और पर्यावरण और पारिस्थितिकी के विनाश से लड़ने के लिए सामाजिक-आध्यात्मिक संगठन मातृ सदन का गठन किया। इस समूह ने सर्व प्रथम गंगा और हिमालय पर ध्यान केंद्रित किया। मातृ सदन के कार्यकर्ताओ ने गांधीजी के शांतिपूर्ण और अहिंसक सत्याग्रह से नदी को अंधाधुंध खनन से बचाने के लिए प्रयास किया। विशेष रूप से हरद्वार के कुंभ मेला क्षेत्र में। खनन के खिलाफ उनका विरोध एक दशक से अधिक समय तक जारी रहा। निगमानंद सरस्वती ने अपने साथी ओ के साथ जनवरी 1998 में और उसी साल जून में फिर से भूख हड़ताल की। उन्होने सत्तर दिन से ज्यादा उपवास किया। इस बीच, संगठन ने कुंभ मेला क्षेत्र में अंधाधुंध उत्खनन को समाप्त करने के लिए कई सत्याग्रह किए और उन्हे ‘भूख हड़ताल’ का नाम दिया।
उन्होंने फरवरी 2011 में फिर से अवैध खनन का मुद्दा उठाया, और अपनी अंतिम भूख हड़ताल शुरू की। उनके उपवास के 68 वें दिन 27 अप्रैल को उन्हें अस्पताल ले जाया गया। 30 अप्रैल को, उन्हें कथित तौर पर नर्स के कपड़े पहने एक अज्ञात व्यक्ति ने एक इंजेक्शन दिया था। हिमालयन इंस्टीट्यूट हॉस्पिटल (जॉली ग्रांट) में, उन्हें “अज्ञात विषाक्तता” का पता चला था। और सीरम की रिपोर्ट में जहर की पुष्टि के बाद उनका इलाज भी किया गया था।
13 जून को उनका निधन हो गया। अस्पताल के प्रवक्ता ने पोस्टमार्टम से पहले कहा कि मौत डिहाइड्रेशन की वजह से हुई थी। शिवानंद ने आरोप लगाया कि निगमानंद को उन लोगों के आदेश पर मार दिया गया था, जिनका वह विरोध कर रहे थे। निगमानंद के दादा सूर्य नारायण झा ने दावा किया कि निगमानंद को इलाज के दौरान जहर देकर मार दिया गया और उत्तराखंड सरकार पर असंवेदनशीलता का आरोप लगाया। उन्होंने निगमानंद के गुरु, शिवानंद की भूमिका की जांच करने का भी आरोप लगाया, जिसमें उन्होंने उपवास पर जाने के लिए मजबूर करने का आरोप लगाया। व्यक्तिगत और राजनीतिक पार्टियो के आरोप-प्रत्यारोप के बीच इस मामले की जांच सीबीआई और एक मेडिकल बोर्ड द्वारा की गई थी। लेकिन उनके नतीजों ने मातृ सदन के उपरांत अन्य निष्पक्ष लोगो को भी संतुष्ट नहीं किया।
शिवानंद ने निगमानंद के आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए 25 नवंबर 2011 से 11 दिनों तक उपवास किया। अंत में, उत्तराखंड सरकार ने हरद्वार जिले में खनन पर प्रतिबंध लगाने का आदेश जारी किया। प्रशासन के अधिकारियों के अनुसार, गंगा पर उत्खनन अब एक विशेष समिति द्वारा किया जाएगा जो नदी और उसके आस-पास के पर्यावरणीय प्रभावों का आकलन करेगा।
स्वामी निगमानंद सरस्वती वैदिक साहित्य के शोधकर्ता और विद्वान थे। वह सामाजिक-आध्यात्मिक पत्रिका डिवाइन मैसेज के संपादकों में से एक थे। पत्रिका का प्रकाशन 1991 के अंत में इसके संपादक स्वामी निखिलानंद सरस्वती द्वारा किया गया था, जो मातृ सदन के संस्थापक भिक्षुओं में से एक थे। स्वामी निगमानंद सरस्वती और स्वामी सच्चिदानंद सरस्वती पत्रिका की संपादकीय टीम के सदस्य थे। त्रैमासिक पत्रिका ने हर अंक में उनके लंबे निबंध प्रकाशित किए। उन्होंने अपने लेखन में वैदिक ग्रंथों पर ध्यान केंद्रित किया है। उन्होंने अपने मठ के जीवन के सोलह वर्षों के दौरान कुछ अन्य साहित्यिक कार्यों के लिए भी योगदान दिया है।
2019 और 2020 मे कोविड19 महामारी क लोकडाउन ने गंगा को स्वच्छ और निर्मल बना दिया था। यह साबित करता है की सरकरे और लोग सामूहिक प्रयास करे तो गंगा को निर्मल रखना असंभव नहीं है। पर ये ओ महामारी का एक सकारात्मक नतीजा था। स्वाभाविक वास्ता मे ही गंगा निर्मल, स्वच्छ और अविरल वहे और ‘मोक्ष दायिनी’ गंगा बनी रहे इसके लिए अनेक गंगापुरो की आहुती ली गई है। हम स्वामी निगमानंद का बलिदान याद रखेंगे।
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