गोपीनाथ बोरदोलोई (जन्म- 6 जून, 1890; मृत्यु- 5 अगस्त, 1950) भारत के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और असम के प्रथम मुख्यमंत्री थे। इन्हें ‘आधुनिक असम का निर्माता’ भी कहा गया है। इन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन में भी सक्रिय रूप से भाग लिया था। 1941 ई. में ‘व्यक्तिगत सत्याग्रह’ में भाग लेने के कारण इन्हें कारावास जाना पड़ा था। वर्ष 1942 ई. में ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में भागीदारी के कारण गोपीनाथ बोरदोलाई को पुन: सज़ा हुई। गोपीनाथ ने असम के विकास के लिए अथक प्रयास किये थे। उन्होंने राज्य के औद्योगीकरण पर विशेष बल दिया और गौहाटी में कई विश्वविद्यालयों की स्थापना करवायी। असम के लिए उन्होंने जो उपयोगी कार्य किए, उनके कारण वहाँ की जनता ने उन्हें ‘लोकप्रिय’ की उपाधि दी थी। वस्तुतः असम के लिए उन्होंने जो कुछ भी किया, उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता।
गोपीनाथ बोरदोलोई प्रगतिवादी विचारों वाले व्यक्ति थे तथा असम का आधुनिकीकरण करना चाहते थे। गोपीनाथ बोरदोलाई का जन्म 6 जून, 1890 ई. को असम में नौगाँव ज़िले के ‘रोहा’ नामक स्थान पर हुआ था। इनके पिता का नाम बुद्धेश्वर बोरदोलोई तथा माता का नाम प्रानेश्वरी बोरदोलोई था। इनके ब्राह्मण पूर्वज उत्तर प्रदेश से जाकर असम में बस गए थे। जब ये मात्र 12 साल के ही थे, तभी इनकी माता का देहांत हो गया था। गोपीनाथ ने 1907 में मैट्रिक की परीक्षा और 1909 में इण्टरमीडिएट की परीक्षा गुवाहाटी के ‘कॉटन कॉलेज’ से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी। इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए वे कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) चले गए। कलकत्ता में बी.ए. करने के बाद 1914 में उन्होंने एम.ए. परीक्षा उत्तीर्ण की। तीन साल उन्होंने क़ानून की शिक्षा ग्रहण करने के बाद गुवाहाटी लौटने का निश्चय किया।[1]
गुवाहाटी लौटने पर गोपीनाथजी ‘सोनाराम हाईस्कूल’ के प्रधानाध्यापक पद पर कार्य करने लगे। 1917 में उन्होंने वकालत शुरू की। यह वह जमाना था, जब राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने देश की आजादी के लिए अहिंसा और ‘असहयोग आन्दोलन’ प्रारम्भ किया था। अनेक नेताओं ने उस समय गाँधीजी के आदेश के अनुरूप सरकारी नौकरियाँ छोड दी थीं और ‘असहयोग आन्दोलन’ में कूद पडे थे। गोपीनाथ बोरदोलोई भी बिना किसी हिचक से अपनी चलती हुई वकालत को छोडकर स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े।
इस समय उनके साथ असम के अन्य नेता भी स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लेने लगे। इन नेताओं में प्रमुख थे- नवीनचन्द्र बोरदोलोई, चन्द्रनाथ शर्मा, कुलाधार चलिहा, तरुणराम फूकन आदि। वकालत छोडने के बाद के बाद सबसे पहले गोपीनाथजी ने दक्षिण कामरूप और गोआलपाड़ा ज़िले का पैदल दौरा किया। इस दौरे में तरुणराम फूकन उनके साथ थे। उन्होंने जनता को संदेश दिया कि- “वे विदेशी माल का बहिष्कार करें, अंग्रेज़ों के काम में असहयोग करें और विदेशी वस्त्रों के स्थान पर खद्दर धारण करें। विदेशी वस्त्रों की होली के साथ-साथ खद्दर के लिए चरखे और सूत कातें।” इसका परिणाम यह हुआ कि गोपीनाथ बोरदोलोई और उनके साथियों को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें एक वर्ष कैद की सजा दी गई। उसके बाद से उन्हने अपने आपको पूरी तरह देश के ‘स्वतन्त्रता संग्राम’ के लिए समर्पित कर दिया।[1]
1926 में गोपीनाथ बोरदोलोई ने सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया। उन्होंने कांग्रेस के 41वें अधिवेशन में भाग लेने के बाद जहाँ अपनी लोकप्रियता में वृद्धि की, वहाँ वे सामाजिक जीवन से भी अधिक जुडते गए। 1932 में वे गुवाहाटी के नगरपालिका बोर्ड के अध्यक्ष चुने गए। उस समय असम की स्थिति एक पिछडे प्रदेश की थी। न तो उसका अपना पृथक् उच्च न्यायालय था, न ही कोई विश्वविद्यालय। गोपीनाथजी के प्रयत्नों से यह दोनों बातें सम्भव हो सकीं। 1939 में जब कांग्रेस ने प्रदेश विधान सभाओं के लिए चुनाव में भाग लेने को निश्चय किया तो गोपीनाथ बोरदोलोई असम से कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में विजयी हुए और मुख्यमंत्री बने। उसके बाद से वे पूरी तरह से असम की जनता के लिए समर्पित हो गए। वे “शेर-ए-असम” ही नहीं थे, “भारत-रत्न” भी थे।
1929 ई. में सरकारी विद्यालयों में राजनीतिक गतिविधियों पर रोक के संबंध में सरकार का आदेश निकला, तो गोपीनाथ बोरदोलोई ने ऐसे विद्यालयों के बहिष्कार का आंदोलन चलाया। परंतु वे शिक्षा के महत्त्व को समझते थे। उनके प्रयत्न से गौहाटी में ‘कामरूप अकादमी’ और ‘बरुआ कॉलेज’ की स्थापना हुई। आगे चलकर जब उन्होंने प्रशासन का दायित्व संभाला तो ‘गौहाटी विश्वविद्यालय’, ‘असम मेडिकल कॉलेज’ तथा अनेक तकनीकी संस्थाओं की स्थापना में सक्रिय सहयोग दिया।
1938 ई. में असम में जो पहला लोकप्रिय मंत्रिमंडल बना, उसके मुख्यमंत्री गोपीनाथ बोरदोलोई ही थे। इस बीच उन्होंने असम में अफ़ीम पर प्रतिबंध लगाने का ऐतिहासिक काम किया। विश्वयुद्ध आरंभ होने पर उन्होंने भी इस्तीफ़ा दे दिया और जेल की सज़ा भोगी। युद्ध की समाप्ति के बाद वे दुबारा असम के मुख्यमंत्री बने। स्वतंत्रता के बाद का यह समय नवनिर्माण का काल था।
भारत को स्वतन्त्रता देने से पूर्व जिस समय भारत के विभाजन की बात चल रही थी, उस समय असम में गोपीनाथ बोरदोलोई के हाथ में सत्ता थी। ब्रिटिश सरकार की योजना से ऐसा प्रतीत होता था कि असम प्रदेश को कुछ भागों में बाँट कर पूर्वी पाकिस्तान (अब बंगलादेश) में सम्मिलित कर दिया जाएगा। गोपीनाथ और उनके साथी यदि समय रहते सजग न होते तो असम आज बंगलादेश को हिस्सा होता। ‘भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम’ से सम्बन्धित व्यक्ति जानते है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के समय ब्रिटिश सरकार ने भारत की इच्छा के विपरीत उसे युद्ध का भागीदार बना दिया था। उस समय गांधीजी ने जब असहयोग को नारा दिया तो गोपीनाथ बोरदोलोई के मन्त्रिमण्डल ने त्याग पत्र दे दिया था।
विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद 1946 में असम में कांग्रेस की भारी बहुमत से जीत हुई और गोपीनाथ बोरदोलोई मुख्यमंत्री बने। यहाँ एक विशेष बात उल्लेखनीय है कि उस समय अनेक प्रदेशों के मुख्यमन्त्रियों को प्रधानमन्त्री कहा जाता था। इसी कारण ब्रिटिश सरकार के जितने प्रतिनिधि मण्डल आए, वे सब अलग-अलग प्रदेशों के प्रधानमन्त्रियों से बात करते थे। प्रारम्भ में इस बातचीत में गोपीनाथ बोरदोलोई को इसलिए नहीं बुलाया गया, क्योंकि ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधि उनके भारत समर्थक विचारों से भली प्रकार परिचित थे। ब्रिटिश सरकार की एक बड़ी चाल यह थी कि भारत के विभिन्न भागों को अलग-अलग बाँटने के लिए उन्होंने ‘ग्रुपिंग सिस्टम’ योजना बनाई। उन्होंने यह योजना कांग्रेस के प्रतिनिधियों के सामने रखी।
उन्हीं दिनों 6 जुलाई और 7 जुलाई को मुम्बई में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। कांग्रेस ने योजना पर विचार किया और दुःख की बात यह है कि कांग्रेसी नेता ब्रिटिश सरकार की चाल को समझ नहीं पाए और उन्होंने योजना के लिए स्वीकृति दे दी। गोपीनाथ बोरदोलोई इस योजना के सर्वथा विरुद्ध थे। उनका कहना था कि असम के सम्बन्ध में जो भी निर्णय किया जाएगा अथवा उसका जो भी संविधान बनाया जाएगा, उसका पूरा अधिकार केवल असम की विधानसभा और जनता को होगा। वे अपने इस निर्णय पर डटे रहे।
उनकी इसी दूरदर्शिता के कारण असम इस षड़यंत्र का शिकार होने से बच सका। गोपीनाथ बोरदोलोई ने अपने देश के प्रति सच्ची निष्ठा के कारण भारतीय स्तर के नेताओं में इतना महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया था कि वे इनकी बात मानने को तैयार हुए। इस प्रकार असम भारत का अभिन्न अंग बना रहा। यही कारण है कि भारत और असम के लोग उनके इस महत्त्वपूर्ण कार्य को समझ सके। असम के लोग आज बड़े प्यार से गोपीनाथ बोरदोलोई को शेर-ए-असम के नाम से पुकारते हैं।[1]
गोपीनाथ बोरदोलोई के नेतृत्व में असम प्रदेश में नवनिर्माण की पक्की आधारशिला रखी गई थी, इसलिए उन्हें ‘आधुनिक असम का निर्माता’ भी कहा जाता है। 5 अगस्त, 1950 ई. में जब वे 60 वर्ष के थे, तब उनका देहांत गुवाहाटी में हो गया। गोपीनाथ बोरदोलोई के प्रयत्नों से ही असम आज भारत का अभिन्न अंग है। ब्रिटिश सरकार ने उस क्षेत्र को अलग करने की योजना बनाई थी। उस समय कांग्रेस ‘भारतीय स्वतंत्रता संग्राम’ को नेतृत्व कर रही थी। कांग्रेस से सम्बद्ध वही एक ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने इसे भयंकर षड़यन्त्र समझा और कांग्रेस से इस पर जोर डालने को कहा। इसके अतिरिक्त असम में सरकार बनाने तथा उसकी उन्नति के लिए जो कार्य उन्होंने किए, अन्ततः भारत सरकार ने उन्हीं से प्रभावित होकर इन्हें 1999 में मरणोपरान्त भारत के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया।
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