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सूर्यकांत त्रिपाठी निराला – बादल राग कविता

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी का जन्म बंगाल के मेदिनीपुर जिले में सन् 1897 में हुआ था। इनके पिता पं रामसहाय त्रिपाठी उत्तर प्रदेश में उन्नाव जिले के रहने वाले थे। घर पर ही इनकी शिक्षा का श्रीगणेश हुआ।


निराला छायावाद के ऐसे कवि हैं जो एक ओर कबीर की परंपरा से जुड़ते हैं तो दूसरी ओर समकालीन कवियों के प्रेरणा स्रोत भी हैं। उनका यह विस्तृत काव्य-संसार अपने भीतर संघर्ष और जीवन क्रांति और निर्माण, ओज और माधुर्य आशा और निराशा के द्वंद्व को कुछ इस तरह समेटे हुए है कि वह किसी सीमा में बँध नहीं पाता। उनका यह निर्बध और उदात्त काव्य व्यक्तित्व कविता और जीवन में फाँक नहीं रखता। वे आपस में घुले-मिले हैं। उल्लास-शोक राग-विराग उत्थान -पतन, अंधकार प्रकाश का सजीव कोलाज है उनकी कविता। जब वे मुक्त छंद की बात करते हैं तो केवल छंद रूढ़ियों आदि के बंधन को ही नही तोड़ते बल्कि काव्य विषय और युग की सीमाओं को भी अतिक्रमित करते हैं।


जीवन-परिचय:  चौदह वर्ष की अल्पायु में इनका विवाह मनोहरा देवी के साथ हो गया। पिताजी की मृत्यु के बाद इन्होने मेदिनीपुर रियासत में नौकरी कर ली। पिता की मृत्यु का आघात अभी भूल भी न पाए थे कि बाईस वर्ष की अवस्था में इनकी पत्नी का भी स्वर्गवास हो गया। आर्थिक संकटों, संघर्षो तथा जीवन की यथार्थ अनुभूतियों ने निराला जी के जीवन की दिशा ही मोड़ दी। ये रामकृष्ण मिशन, अद्वैत आश्रम, बैलूर मठ चले गए। वहाँ इन्होंने दर्शनशास्त्र का गहन अध्ययन किया और आश्रम के ‘समन्वय’ नामक पत्र के संपादन का कार्य भी किया। फिर ये लखनऊ में रहने के बाद इलाहाबाद चले गए और अन्त तक स्थायी रूप से इलाहाबाद में रहकर आर्थिक संकटों एवं अभावों में भी इन्होंने बहुमुखी साहित्य की सृष्टि की।


निराला जी गम्भीर दार्शनिक, आत्मभिमानी एवं मानवतावादी थे। करुणा दयालुता, दानशीलता और संवेदनशीलता इनके जीवन की चिरसंगिनी थी। दीनदु:खियों और असहायों का सहायक यह साहित्य महारथी 15 अक्सर 1961 ई. को भारतभूमि को सदा के लिए त्यागकर स्वर्ग सिधार गया।


सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी की रचनाएँ: निराला जी ने साहित्य के सभी अंगों पर विद्वता एवं अधिकारपूर्ण लेखनी चलाई है।

काव्यगत विशेषताएँ: सूर्यकांत त्रिपाठी निराला निराला बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। निराला जी के काव्य में जहाँ एक ओर शक्ति और अदम्य पौरुष है, वहाँ दूसरी ओर शृंगार भी है; जहाँ एक ओर दार्शनिकता है, वहाँ दूसरी ओर मानवता के प्रति करुणा, संवेदना और टीस है। जहाँ एक ओर वृद्धि तत्त्व है, वहाँ दूसरी ओर हृदय तत्त्व। कहीं जागरण है तो कहीं उन्माद और कहीं सिंह गर्जना। कही छायावादी निराला हैं तो कहीं रहस्यवादी। कहीं प्रगतिवादी तो कहीं मानवतावादी।

इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं-

काव्य: परिमल, गीतिका, तुलसीदास, अनामिका, बादल राग, अर्चना, आराधना कुकुरमुत्ता आदि।

उपन्यास: अप्सरा, अलका, निरूपमा, प्रभावती, काले कारनामे आदि।

कहानी: सुकुल की बीवी, लिली, सखी अपने घर, चतुरी चमार आदि।

निबंध: प्रबंध पद्य, प्रबंध प्रतिभा, चाबुक, रवीन्द्र कानन आदि।

रेखाचित्र: कुल्ली भाट, बिल्लेसुर आदि।

जीवनी: राणा प्रताप, भीष्म प्रह्राद, ध्रुव शकुतंला।

अनूदित: कपाल; कंडला, चंद्रशेखर आदि।


भाषा: सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी की भाषा खड़ी बोली है। संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्राधान्य है। बँगला के प्रभाव कै कारण भाषा मे संगीतात्मकता है। क्रिया पदों का लोप अर्थ की दुर्बोधता में सहायक है। प्रगतिवादी कविताओं की भाषा सरल और बोधगम्य है। उर्दू फारसी तथा अंग्रेजी शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं।

विषयों और भावों की तरह भाषा की दृष्टि से भी निराला की कविता के कई रंग हैं। एक तरफ तत्सम सामाजिक पदावली और ध्वन्यात्मक बिंबों से युक्त राम की शक्ति पूजा और छंदबद्ध तुलसीदास है तो दूसरी तरफ देशी टटके शब्दों का सोंधापन लिए कुकुरमुत्ता, रानी और कानी, महंग. महँगा रहा जैसी कविताएँ हैं।


बादल राग सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी की सबसे लम्बी रचना है, बादल राग कविता  अनामिका में  छः खंडो में प्रकाशित है।

बादल राग / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” / भाग १
बादल राग / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” / भाग २
बादल राग / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” / भाग ३
बादल राग / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” / भाग ४
बादल राग / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” / भाग ५
बादल राग / सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” / भाग ६

 यहाँ उनका छठा खंड संगठित किया गया है।


बादल राग -भाग ६

तिरती है समीर-सागर पर
अस्थिर सुख पर दुःख की छाया-
जग के दग्ध हृदय पर
निर्दय विप्लव की प्लावित माया- 

यह तेरी रण-तरी
भरी आकांक्षाओं से,
घन, भेरी-गर्जन से सजग सुप्त अंकुर
उर में पृथ्वी के, आशाओं से 

नवजीवन की, ऊँचा कर सिर,
ताक रहे है, ऐ विप्लव के बादल!
फिर-फिर!
बार-बार गर्जन
वर्षण है मूसलधार,
हृदय थाम लेता संसार,
सुन-सुन घोर वज्र हुँकार। 

अशनि-पात से शायित उन्नत शत-शत वीर,
क्षत-विक्षत हत अचल-शरीर,
गगन-स्पर्शी स्पर्द्धा-धीर। 

हँसते है छोटे पौधे लघुभार-शस्य अपार ,
हिल-हिल
खिल-खिल,
हाथ मिलाते,
तुझे बुलाते,
विप्लव-रव से छोटे ही है शोभा पाते। 

अट्टालिका नही है रे
आतंक-भवन,
सदा पंक पर ही होता
जल-विप्लव प्लावन,
क्षुद्र प्रफुल्ल जलज से
सदा छलकता नीर,
रोग-शोक में भी हँसता है
शैशव का सुकुमार शरीर।

रुद्ध कोष, है क्षुब्ध तोष,
अंगना-अंग से लिपटे भी
आतंक-अंक पर काँप रहे हैं
धनी, वज्र-गर्जन से, बादल!
त्रस्त नयन-मुख ढाँप रहे है। 

जीर्ण बाहु, है शीर्ण शरीर
तुझे बुलाता कृषक अधीर,
ऐ विप्लव के वीर!
चूस लिया है उसका सार,
हाड़ मात्र ही है आधार,
ऐ जीवन के पारावार!

इस कविता में बादल क्रांति या विप्लव का प्रतीक है। कवि विप्लव के बादल को संबोधित करते हुए कहता है कि जन-मन की आकांक्षाओं से भरी तेरी नाव समीर रूपी सागर पर तैर रही है। अस्थिर सुख पर दु:ख की छाया तैरती दिखाई देती है।​ बादलों के गर्जन से पृथ्वी के गर्भ में सोए अंकुर बाहर निकल आते हैं अर्थात् शोषित वर्ग सावधान हो जाता है-और आशा भरी दृष्टि से क्रांति की ओर देखने लगता है। उनकी आशा क्रांति पर ही टिकी है। बादलों की गर्जना और मूसलाधार वर्षा में बड़े-बड़े घबरा जाते हैं। क्रांति की हुंकार से पूँजीपति घबरा उठते हैं, वे दिल थाम कर रह जाते है। क्रांति को तो छोटे-छोटे लोग हँसकर बुलाते हैं। जिस प्रकार छोटे-छोटे पौधे हाथ हिलाकर बादलों के आगमन का स्वागत करते हैं वैसे ही शोषित वर्ग क्रांति के आगमन का स्वागत करता है।​

Suraj Kumar

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